थियोसॉफी की कुंजिका (द की टू थियोस्फी)* *लेखिका : एच.पी. ब्लेवेट्स्की*
पुनर्जन्म विषयक अद्वितीय पुस्तक
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पुस्तक समीक्षा
पुस्तक का नाम : थियोसॉफी की कुंजिका (द की टू थियोस्फी)
लेखिका : एच.पी. ब्लेवेट्स्की
मूल प्रकाशन : लंदन ,1889
हिंदी अनुवाद प्रथम संस्करण : 1998
अनुवादक : रघुवीर शरण गुप्ता
प्रकाशक : इंडियन बुक शॉप
थियोसॉफिकल सोसायटी ,कमच्छा, वाराणसी 221010
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समीक्षक : रवि प्रकाश ,बाजार सर्राफा
रामपुर (उत्तर प्रदेश)
मोबाइल 9997615451
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थियोसॉफी अर्थात सनातन ज्ञान
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थियोसॉफिकल सोसायटी के संस्थापक के रूप में मैडम ब्लेवेट्स्की का अध्यात्म-जगत के प्रति भारी योगदान रहा है । आप बहुत ऊँचे दर्जे की अध्यात्म साधिका रही हैं। प्रश्न केवल आप की अपार विद्वत्ता का नहीं है अपितु आपकी गहन साधना का है। अध्यात्म-साधना में आपने उच्च कोटि की उपलब्धियाँ प्राप्त की हैं। दिव्य महात्माओं से आपका संपर्क आया । आपने बनारस में ताजे गुलाब के फूलों की वर्षा से सभी को चमत्कृत कर दिया था । आप अलौकिक शक्तियों की स्वामिनी थीं। दिव्य चेतना से प्रकृति के अनेकानेक रहस्यों को आपने उद्घाटित किया। काशी-नरेश के राजमहल के मुख्य द्वार पर सत्यान्नास्ति परो धर्मः लिखा हुआ आपको इतना पसंद आया था कि आपने उसे थियोसॉफिकल सोसायटी के प्रतीक चिन्ह में ध्येय-वाक्य के रुप में सम्मिलित कर दिया । इसका अर्थ है कि सत्य से बढ़कर कोई धर्म नहीं होता ।
“द की टू थियोस्फी” अद्भुत पुस्तक है। सब कुछ लिख चुकने के बाद भी मैडम ब्लेवेट्स्की संसार को अपना अनुपम ज्ञान सौंपने के लिए उत्सुक थीं। “सीक्रेट डॉक्टरीन” जैसे कठिन और जटिल ग्रंथ सर्वसाधारण की तो बात ही क्या ,भारी विद्वानों की समझ से भी परे थे। इन सब का समाधान एक छोटी सी पुस्तक “द की टू थियोस्फी” लिखकर स्वयं मैडम ब्लेवेट्स्की ने ही उपस्थित कर दिया । पुस्तक में चौदह अध्याय हैं जिसमें थियोसॉफिकल सोसायटी का इतिहास ,उसका आधार तथा आत्मा और ब्रह्म के साथ-साथ कर्म के जटिल नियम और पुनर्जन्म की ऐसी सरल व्याख्या की गई है कि अध्यात्म के रहस्य मानो दीवार पर लिखे हुए साफ-साफ नजर आने लगे हैं। कर्म और पुनर्जन्म पर मैडम ब्लैवट्स्की के विचार उनके अंतर्मन से प्रकाशित ज्ञान की ही अभिव्यक्ति कहे जा सकते हैं । ऐसा ज्ञान जो सनातन है और चिर नवीन भी है किंतु जिसे सत्य रूप में अनुभव कर पाना केवल मैडम ब्लैवेट्स्की जैसी अनुपम अध्यात्म साधिकाओं के द्वारा ही संभव है।
शुरुआत इस वाक्य से होती है कि थियोस्फी एक धर्म नहीं है ,थिओस्फी ब्रह्मविद्या है। पुस्तक के अनुसार थियोसॉफी शब्द का प्रयोग ईसा की तीसरी शताब्दी में अमोनियस सेकॉस नामक मिस्र के एक दार्शनिक और उसके शिष्यों द्वारा किया गया था किंतु यह वास्तव में बहुत प्राचीन है क्योंकि थियोसॉफी शब्द संस्कृत के ब्रह्मविद्या या दैवी-ज्ञान का पर्यायवाची है । (पृष्ठ 1 )
थिओसोफिकल सोसाइटी के उद्देश्य को और भी स्पष्ट करते हुए पुस्तक कहती है कि अमोनियस के संगठन का उद्देश्य “सब धर्मों संप्रदायों और राष्ट्रों के बीच सनातन सत्य के अंतर्गत सामंजस्य स्थापित करना था। वर्तमान थियोसॉफिकल सोसायटी का भी यही उद्देश्य है । सब धर्मों के तुलनात्मक अध्ययन और विश्लेषण के द्वारा यह संभव है ।”(पृष्ठ 4 )
पुनः इस बात को दोहराया गया है कि थियोसॉफी का शब्द और नाम भले ही नया हो लेकिन “थियोस्फी की शिक्षा और इसका नीतिशास्त्र उतना ही प्राचीन है जितना यह संसार” (प्रष्ठ 8)
संपूर्ण पुस्तक प्रश्न और उत्तर के रूप में लिखी गई है । एक स्थान पर जब यह प्रश्न किया जाता है कि क्या आप सब गौतम बुद्ध के अनुयाई हैं ? तब स्पष्ट उत्तर यह दिया जाता है “नहीं ” । हालांकि पुस्तक स्पष्ट कहती है कि” थियोसॉफी और बौद्ध धर्म की नैतिकता में समानता है। फिर भी थियोस्फी बौद्ध धर्म नहीं है। “( प्रष्ठ 9)
वास्तव में थियोस्फी का सिद्धांत यह है कि उसका न कोई धर्म है और न कोई विशेष तत्व दर्शन । जहाँ भी उसे अच्छाई दिखती है वह उसे अपना लेती है। (पृष्ठ 11)
एक सच्चे थियोसॉफिस्ट को पुस्तक में अनेक स्थानों पर परिभाषित किया गया है। एक परिभाषा यह है कि वह “उच्चतम नैतिक आदर्श के अनुसार आचरण करे, समस्त मानव मात्र के साथ अपना एकत्व अनुभव करने का प्रयत्न करे और निरंतर दूसरों के लिए कार्य करे ।”(पृष्ठ 15)
थियोसॉफिकल सोसायटी के सुस्पष्ट उद्देश्य अध्याय 3 में इस प्रकार वर्णित हैं :(1) जाति ,रंग ,लिंग या धर्म के भेदभाव से रहित मानव मात्र के विश्व बंधुत्व के एक सजीव केंद्र की स्थापना करना (2) आर्य तथा अन्य ग्रंथों के ,संसार के धर्मों और विज्ञानों के अध्ययन को प्रोत्साहित करना तथा प्राचीन एशिया के साहित्य जैसे ब्राह्मणीय ,बौद्ध और पारसी तत्व दर्शनों के महत्व को प्रमाणित करना( 3 )प्रकृति के छुपे रहस्यों के प्रत्येक संभव पक्ष का तथा मनुष्य में सुप्त मानसिक और आध्यात्मिक शक्तियों का अनुसंधान करना( पृष्ठ 26)
उपरोक्त उद्देश्य तथा थियोसॉफिकल सोसायटी की कार्य पद्धति इसके असाम्प्रदायिक चरित्र को भलीभाँति प्रदर्शित कर रही है । इसका अर्थ है कि थियोसॉफिकल सोसायटी किसी भी संकीर्ण विचारधारा अथवा जातिगत क्षुद्रता से प्रभावित नहीं है । सत्य का अनुसंधान ही इसका एकमात्र लक्ष्य है । इसी तथ्य को मैडम ब्लैवट्स्की ने यह कहकर ठोस रूप प्रदान कर दिया कि “सोसाइटी का अपना कोई ज्ञान नहीं है । यह तो केवल उन समस्त सत्यों का संग्रहालय है जिनका उद्घोष महान ऋषियों ,महात्माओं, पैगंबरों ने किया । अतः यह तो केवल माध्यम है जिसके द्वारा मानव जाति के महान शिक्षकों की संचित वाणी में उपलब्ध थोड़ा बहुत सत्य संसार को प्राप्त हो सके।” (पृष्ठ 38 )
पुनः पुस्तक दोहराती है कि थियोसॉफी कोई धर्म नहीं है ,”यह तो सभी धर्मों का सार और परम सत्य है”( पृष्ठ 39)
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ईश्वर अनंत और असीम है
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थियोसॉफी किसी “देहधारी या जगत से परे और मानव-रूप धारी” ईश्वर के विचार को अस्वीकार करती है ।(पृष्ठ 41)
वह ईश्वर को “अनंत और असीम” मानती है। थियोसॉफि के अनुसार “ईश्वर सर्वत्र व्याप्त ,असीम ,अनंत सत्ता है । ” वह पिता “मनुष्य के अपने अंतर में है । सृष्टि से परे कोई ससीम ईश्वर नहीं ।” इसी ईश्वर का अनुभव थियोसॉफि में “अपने अंदर ,अपने हृदय और अपनी आत्मिक चेतना” में किया जाता है। ( पृष्ठ 45)
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प्रार्थना
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थियोसॉफी प्रार्थना में विश्वास करती है किंतु इसके सही मंतव्य को समझना आवश्यक है । यह ऐसी प्रार्थना है जो इच्छाओं और विचारों को “आध्यात्मिक संकल्पों और दृढ़ संकल्प” में बदल देती है । थियोसॉफी ने इस प्रक्रिया को “आध्यात्मिक रूपांतरण” कहा। इस आध्यात्मिक रूपांतरण के उपरांत प्रार्थना “पारस में बदल जाती है ,जो लोहे को शुद्ध सोना बना सकती है । प्रार्थना सक्रिय और सृजनात्मक शक्ति बन जाती है और व्यक्ति की इच्छा के अनुकूल परिणाम उत्पन्न करती है ।”(प्रष्ठ 46 )
थियोसॉफी उस प्रार्थना में विश्वास नहीं करती जिसमें लोग “अत्यधिक स्वार्थी हैं और केवल अपने लिए ही प्रार्थना करते हैं और माँगते हैं कि उन्हें रोज की रोटी तो मिले पर उसके लिए परिश्रम नहीं करते । “( पृष्ठ 47 )
विकृत प्रार्थना से दो नुकसान होते हैं।(1) मनुष्य में आत्मनिर्भरता समाप्त हो जाती है । (2) उसकी स्वभावजन्य स्वार्थपरता बढ़ जाती है ।”(पृष्ठ 47)
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जीवन ,मृत्यु और पुनर्जन्म
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प्रकृति का जीवन चक्र पुस्तक ने बहुत सरलता से समझा दिया । उसने कहा कि समय-समय पर विश्व का विलय हो जाता है और विश्व-रात्रि आरंभ होती है । “उस रात्रि में सब कुछ उस परब्रह्म में समाहित रहता है । प्रत्येक कण उस परम एकत्व में समा जाता है । ” हिंदुओं की भाषा में” यह “ब्रह्मा के दिन और रात्रि हैं”( पृष्ठ 52)
मृत्यु के संबंध में विचार करना पुस्तक को प्रिय है। लगभग पूरी पुस्तक आत्मा और पुनर्जन्म के विचारों से भरी हुई है । थियोसॉफी पुनर्जन्म लेने वाले “जीवात्मा के अमरत्व में विश्वास” करती है । “यह दिव्य तत्व है । इसका न शरीर है न रूप । यह कल्पनातीत ,अगोचर और अखंड है।” (प्रष्ठ 62)
अब आइए जीवात्मा के पुनर्जन्म को समझा जाए । यह सिद्धांत ऐसा है कि “जीवात्मा अपनी शाश्वतता के कारण” पृथ्वी पर अपने समस्त पुनर्जन्मों में वही अंतरात्मा बना रहेगा । “उसका नाशवान शरीर मृत्यु के पश्चात नष्ट हो जाएगा।..उसे अपनी अंतिम देह का भान भी समाप्त हो जाएगा ,किंतु जीवात्मा अपरिवर्तित इकाई रहेगा।” ( पृष्ठ 64 )
पुनर्जन्म में “नई जीवात्मा का निर्माण” नहीं होता (पृष्ठ 67) अपितु पुनर्जन्म का अर्थ तो यह है कि जीवात्मा वही रहती है तथापि उस “जीवात्मा को एक नए स्थूल शरीर ,एक नए मस्तिष्क और एक नई स्मृति उपलब्ध” हो जाती है ।(पृष्ठ 78)
पुराने जन्म की स्मृतियों का क्या होता है ? पुस्तक का कहना है कि वह सब “फूल के समान” नष्ट हो जाती हैं और हल्की-सी सुगंध छोड़ जाती हैं। एक अन्य लेखक एच. एस.ऑलकाट की पुस्तक का हवाला देते हुए बताया गया है कि “पिछले जन्मों का लेखा कहीं तो रहता ही है क्योंकि जब युवराज सिद्धार्थ बुद्ध हो गए तो उन्होंने अपने पिछले जन्मों की पूरी श्रृंखला को देखा और जो कोई भी ज्ञान की वह स्थिति प्राप्त कर लेता है ,वह पिछले जन्मों की श्रंखला को देख सकता है ।”( प्रष्ठ 79)
पिछले जन्म की स्मृतियों के बारे में स्थिति यह है कि पुनर्जन्म के बाद व्यक्ति को अपने पिछले जीवन की कोई स्मृति शेष नहीं रहती परंतु “वास्तविक जीवात्मा ने तो पिछले जन्म को जिया है ,अतः उसे उन सब का ज्ञान रहता है ।”(पृष्ठ 80)
यहाँ पर बहुत सुंदर प्रश्न पुस्तक में उपस्थित हुआ है कि जीवात्मा पिछले जन्म की स्मृति नए शरीर को क्यों नहीं देता ? उत्तर यह है कि जीवात्मा तभी कार्य कर सकता है जब देह निष्क्रिय हो जाए । जीवात्मा की सीमाओं के संबंध में लेखक का यह कथन अत्यंत विचारणीय है कि वस्तुतः “जीवात्मा निरंतर और बिना किसी अवरोध के अपने आप को अभिव्यक्त कर पाता तो पृथ्वी पर फिर मनुष्य नहीं ,हम सब देवता होते।” (पृष्ठ 81)
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देवचन (स्वर्ग) में निवास की अवधि
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मृत्यु के बाद आत्मा देवचन अर्थात स्वर्ग में निवास करती है । तदुपरांत पृथ्वी पर उसका जन्म होता है । इन “दो जन्मों के बीच का अंतराल 10 से 15 शताब्दियों तक का हो सकता है।” देवचन में व्यक्ति को अपने पिछले जन्म में की स्मृति नहीं रहती क्योंकि “उसके सक्रिय होने के लिए कोई अवयव या शरीर ही नहीं होते”( पृष्ठ 81)
वास्तव में देवचन में भी पिछले जन्म का ही एक प्रकार से जारी रहना होता है क्योंकि पिछले जन्म के फल का देवचन में “समायोजन” होता है । जीवात्मा सर्वज्ञता तो केवल तब ही प्राप्त कर पाती है जब वह “परमात्मा में विलीन” हो जाती है। (पृष्ठ 82)
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पुनर्जन्म का सिद्धांत
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पुनर्जन्म का सिद्धांत बहुत रोचक तथा रोंगटे खड़े कर देने वाले व्याख्यान के रूप में समझाया गया है । ब्लैवट्स्की के अनुसार पुनर्जन्म के कारण अपने किए गए “कर्म यहाँ तक कि पाप पूर्ण विचार” से भी कोई दंड से नहीं बच सकता ।( प्रष्ठ 86)
व्यक्ति अपने जीवन के शुभ कर्मों का फल देवचन अर्थात स्वर्ग में प्राप्त करता है। तत्पश्चात उसके पिछले जन्म के कर्म देवचन के द्वार पर प्रतीक्षा करते हैं और अपने पिछले जन्म के कर्मों के परिणाम को भोगने के लिए उसे पुनः धरती पर जन्म लेना पड़ता है । पुस्तक बताती है कि “इस पुनर्जन्म का चयन और प्रस्तुति रहस्यमय ,कठोर परंतु न्यायोचित ,बुद्धिमत्तापूर्ण और अचूक नियम द्वारा की जाती है । इस पुनर्जन्म में ही जीवात्मा को अपने पहले जन्म के पापों के लिए दंडित किया जाता है। उसने जैसा बोया है वैसा ही काटेगा । ”
कर्म का फल किस प्रकार से व्यक्ति को पुनर्जन्म के द्वारा दिया जाता है ,इसका रोचक विवरण स्वयं लेखिका के शब्दों में ही आप पढ़ कर देखिए। लिखा है :-
“पुनर्जन्म में उसके चारों ओर वे सभी जीवात्माएँ एकत्रित हो जाएंगी जिन्होंने प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से उसकी पिछली देहात्मा द्वारा अनजाने में भी कष्ट पाया होगा । पुराने मनुष्य और शाश्वत जीवात्मा को छुपाकर प्रतिरोध की देवी उन सभी को नए मनुष्य के मार्ग में ला उपस्थित करेगी।”( पृष्ठ 87)
पुस्तक प्रश्न-उत्तर के माध्यम से है। अतः प्रश्न यह उपस्थित होता है कि नए शरीर को तो अपने पुराने किसी पाप का पता ही नहीं है ,तो फिर न्याय कैसा ? उत्तर यह है कि शरीर रूपी वस्त्र नए जरूर हैं लेकिन उन्हें “धारण करने वाला वही पुराना अपराधी” होता है अतः जीवात्मा ही अपनी देहात्मा के माध्यम से कष्ट पाता है।
ब्लैवेट्स्की कहती हैं :-“केवल यही कारण है कि जीवन में मनुष्य का भाग्य-निर्माण अत्यंत ही अन्याय पूर्ण प्रतीत होता है । कितने ही दिखने में निर्दोष और अच्छे लोग जीवन भर कष्ट पाते हैं। कितने ही लोग बड़े नगरों की गंदी बस्तियों में जन्म से ही भाग्य और मनुष्यों द्वारा परित्यक्त भूखे रहने के लिए ही जन्मते हैं । कुछ गंदी नालियों में और कुछ अन्य महलों के भव्य प्रकाश में जन्म लेते हैं । क्यों अच्छा जन्म और भाग्य प्रायः निकृष्ट लोगों को और केवल यदा-कदा ही योग्य व्यक्तियों को प्राप्त होता है ? ऐसे लोग भिखारी क्यों है जिनका अंतरात्मा उच्चतम और श्रेष्ठ लोगों के समान है “(प्रष्ठ 88)
पुनर्जन्म का उपरोक्त चित्रण सिहरन पैदा करने वाला है । यह भी कितना अच्छा वर्णन कि हमारे चारों ओर जो मित्र और संबंधी एकत्र हैं ,वह वास्तव में हमारे पिछले जन्म के ही साथी हैं। उनमें से बहुतों को हमसे पुराना कर्ज वसूल करना है और बहुतों को पुराना कर्ज चुकाना है । प्रकृति की यह व्यवस्था कितनी जटिलता से रची जाती होगी ,इसकी कल्पना करना भी कठिन है। लेकिन कर्म-फल और पुनर्जन्म के बीच आपसी संबंध को इससे बेहतर तरीके से अभिव्यक्त नहीं किया जा सकता था । इस बिंदु पर मैडम ब्लैवट्स्की ने जितनी स्पष्टता से कर्म के सिद्धांत और पुनर्जन्म का चित्र खींचा है ,वह सराहनीय है।
जब व्यक्ति मृत्यु के पश्चात देवचन अर्थात स्वर्ग में पहुँच जाता है तब भले ही वह अवधि छोटी हो अथवा एक हजार या डेढ़ हजार वर्षों की हो किंतु उस अवधि में व्यक्ति को “आनंद और परम आह्लाद” ही प्राप्त होता है । ऐसा इसलिए संभव है क्योंकि इस अवधि में उसका कोई संपर्क अपने पिछले जन्म से नहीं रहता । अगर यह संपर्क हो तब वह अपने मृत्यु-पूर्व के घर-परिवार के दुखों को देखकर दुखी होगी और फिर उसके लिए भला “किस प्रकार का आनंद शेष रह जाएगा” (पृष्ठ 90)
यद्यपि मृत्यु के उपरांत देवचन में जा चुके व्यक्ति पृथ्वीलोक से संपर्क स्थापित नहीं कर पाते हैं तो भी कुछ सिद्ध पुरुष अथवा महात्मा “कुछ चुने व्यक्तियों से” संपर्क कर सकते हैं। उनकी सीमाएँ यह हैं कि उन्हें “कर्म में हस्तक्षेप करने का कोई अधिकार नहीं होता। वह जनकल्याण के लिए जीवित व्यक्तियों को केवल सलाह और प्रेरणा दे सकते हैं।” (पृष्ठ 95)
पुस्तक में यह बताया गया है कि जीवात्मा जब देवचन में निवास करती है तब उसके पिछले जन्म के कर्म “फल के लिए बीज रूप में विद्यमान रहते हैं ।” पुनर्जन्म लेते ही वह नई देहात्मा के साथ जुड़ जाते हैं (प्रष्ठ 96)
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अंतिम क्षण का चित्र
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मृत्यु के समय एक विचित्र घटना और होती है । मरता हुआ व्यक्ति अंतिम क्षणों में अपने विगत संपूर्ण जीवन को “संपूर्ण विस्तार के साथ अपने सामने गुजरते हुए” देखता है । उसी क्षण उसका” जीवात्मा से एकाकार ” भी हो जाता है और तब वह “जो कुछ भी उसने भोगा था उसके पीछे न्याय” को देख और समझ पाता है (पृष्ठ 100)
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दो जन्मों के बीच का अंतर
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यह आवश्यक नहीं है कि एक जन्म के बाद दूसरे जन्म के बीच में अनेक वर्षों, दशकों अथवा शताब्दियों का अंतराल हो। अत्यधिक “भौतिकतावादी व्यक्ति के लिए देवचन ही नहीं होता और वह लगभग तुरंत ही पुनर्जन्म” ले लेता है (पृष्ठ 107-108)
मूलतः मैडम ब्लैवट्स्की ने “संस्कृत शब्दावली से आरंभ” किया था लेकिन “समानार्थी अंग्रेजी शब्द” बाद में बनाए( पृष्ठ 109)
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कर्म-बंधन
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जीवन और पुनर्जन्म के चक्र में जीवात्मा की स्थिति यह बताई गई है कि प्रत्येक जीवात्मा “प्रारंभ में ईश्वर” ही था लेकिन फिर बार-बार जन्म लेने के कारण वह “स्वतंत्र और आनंदमय ईश्वर नहीं रहा …बेचारा एक यात्री बन कर रह गया” अब उसे फिर वही सब प्राप्त करना है ,जो इस यात्रा में उससे खो चुका है। ( पृष्ठ 114)
अब कर्म के नियम और कर्म बंधन में हम न फँसें, इस स्थिति को समझिए । थियोसॉफि के अनुसार कर्म-फल के नियम “एक अज्ञात विश्वव्यापी देवता” के द्वारा संचालित हैं । “यह एक ऐसी शक्ति है जिससे भूल-चूक नहीं हो सकती ..वह न क्रोध करता है न दया ..केवल पूर्ण न्याय करता है” । कर्म-बंधन से बचने के लिए बौद्धों के इस सिद्धांत का उल्लेख किया गया है कि बुराई के बदले अच्छाई करो । अधिक स्पष्टता से यह बताया गया है कि अगर हम किसी कार्य का बदला लेते हैं अथवा हमें प्राप्त होने वाले दुख के लिए व्यक्ति को क्षमा नहीं करते तो हम स्वयं ही अपराधी बन जाते हैं । ऐसे में अगले जन्म में हमारे “शत्रु को पुरस्कार” और हमें “दंड का भागी” बनना पड़ता है ।( पृष्ठ 124-125)
खानपान के संयम पर पुस्तक में जोर दिया गया है। मांसाहार से व्यक्ति में “उस पशु के गुण” आ जाते हैं ,जिसका मांस वह खाता है । शराब को व्यक्ति के “नैतिक और आध्यात्मिक विकास के लिए मांस से भी बुरा” बताया गया है ।(पृष्ठ 164- 165)
थियोसॉफी में महात्माओं अथवा गुरुदेव अथवा मास्टर्स का विशेष स्थान है। मैडम ब्लैवट्स्की का संपर्क इन महात्माओं से आया था तथा उनकी प्रेरणा और प्रोत्साहन से उन्होंने बहुत कुछ उत्कृष्ट संसार को सौंपा। इन महात्माओं के बारे में पुस्तक में उन्होंने बताया कि यह भी “जीवित व्यक्ति हैं …जिन्होंने जन्म लिया है तथा उनकी भी मृत्यु होगी ..यह परम विद्वान हैं , इनका जीवन परम पवित्र है”.. इन्होंने उन शक्तियों का विकास कर लिया है जो आमतौर पर व्यक्तियों में “सुप्त अवस्था में पड़ी रहती” हैं। …”केवल कुछ मामलों में उन्होंने प्रत्येक शब्द बोल कर लिखवाया है लेकिन अधिकांशतः वह “प्रेरणा देते हैं और साहित्यिक स्वरूप लेखक पर छोड़” दिया जाता है। थियोसॉफी का सारा सत्य मैडम ब्लैवट्स्की के अनुसार उन्हें महात्माओं से ही प्राप्त हुआ है। (प्रष्ठ 168-169)
इस तरह जहाँ आवश्यक हुआ वहाँ विषय को विस्तार में समझाने में मैडम ब्लैवट्स्की ने पुस्तक में परहेज नहीं किया। यह सचमुच संसार के महान सनातन ज्ञान अर्थात थियोसॉफी की एक कुंजिका ही कही जाएगी । इस ज्ञान के संबंध में सत्यता की पुष्टि गीता आदि अनेक ग्रंथों से अनेक स्थलों पर की जा सकती है। किंतु हमें ध्यान रखना होगा कि यह किन्हीं ग्रंथों से ज्यों का त्यों उतार कर पहुँचाया गया ज्ञान नहीं है अपितु यह एक ऐसे सत्य की अनुभूति है जिसे ध्यान और समाधि के उच्च शिखर का स्पर्श करने के बाद स्वयं मैडम ब्लैवट्स्की ने आत्मसात किया है। ऐसे अनुभव दुर्लभ रूप से ही पुस्तकों के माध्यम से प्राप्त हो पाते हैं। अद्भुत पुस्तक विश्व को प्रदान करने के लिए मैडम ब्लैवेट्स्की को शत शत नमन ।।