Sahityapedia
Login Create Account
Home
Search
Dashboard
Notifications
Settings
23 Sep 2023 · 13 min read

त्रिलोक सिंह ठकुरेला के कुण्डलिया छंद

सोना तपता आग में, और निखरता रूप।
कभी न रुकते साहसी, छाया हो या धूप।।
छाया हो या धूप, बहुत सी बाधा आयें।
कभी न बनें अधीर, नहीं मन में घबरायें।
‘ठकुरेला’ कविराय, दुखों से कभी न रोना।
निखरे सहकर कष्ट, आदमी हो या सोना।।

***

चलते चलते एक दिन, तट पर लगती नाव।
मिल जाता है सब उसे, हो जिसके मन चाव।।
हो जिसके मन चाव, कोशिशें सफल करातीं।
लगे रहो अविराम, सभी निधि दौड़ी आतीं।
‘ठकुरेला’ कविराय, आलसी निज कर मलते।
पा लेते गंतव्य, सुधीजन चलते चलते।।

***

मानव की कीमत तभी, जब हो ठीक चरित्र।
दो कौड़ी का भी नहीं, बिना महक का इत्र।।
बिना महक का इत्र, पूछ सद्गुण की होती।
किस मतलब का यार, चमक जो खोये मोती।
‘ठकुरेला’ कविराय, गुणों की ही महिमा सब।
गुण, अवगुण अनुसार, असुर, सुर, मुनि-गण, मानव।।

***

जो मीठी बातें करें, बनते उनके काम।
मीठे मीठे बोल सुन, बनें सहायक वाम।।
बनें सहायक वाम, सहज जीवन हो जाता।
जायें देश विदेश, सहज में बनता नाता।
‘ठकुरेला’ कविराय, सुखद दिन, भीनी रातें।
पायें सबसे प्यार, करें जो मीठी बातें।।

***

जैसा चाहो और से, दो औरों को यार।
आवक जावक के जुडे़, आपस मे सब तार।।
आपस मे सब तार, गणित इतना ही होता।
वैसी पैदावार, बीज जो जैसे बोता।
‘ठकुरेला’ कविराय, नियम इस जग का ऐसा।
पाओगे हर बार, यार बाँटोगे जैसा।।

***

मोती बन जीवन जियो, या बन जाओ सीप।
जीवन उसका ही भला, जो जीता बन दीप।।
जो जीता बन दीप, जगत को जगमग करता।
मोती सी मुस्कान, सभी के मन मे भरता।
‘ठकुरेला’ कविराय, गुणों की पूजा होती।।
बनो गुणों की खान, फूल, दीपक या मोती।

***

मिलते हैं हर एक को, अवसर सौ सौ बार।
चाहे उन्हें भुनाइये, या कर दो बेकार।।
या कर दो बेकार, समय को देखो जाते।
पर ऐसा कर लोग, फिरें फिर फिर पछताते।
‘ठकुरेला’ कविराय, फूल मेहनत के खिलते।
जीवन में बहु बार, सभी को अवसर मिलते।।

***

मोती मिलते हैं उसे, जिसकी गहरी पैठ।
उसको कुछ मिलना नहीं, रहा किनारे बैठ।।
रहा किनारे बैठ, डरा, सहमा, सकुचाया।
जिसने किया प्रयास, सदा मनचाहा पाया।
‘ठकुरेला’ कविराय, महत्ता श्रम की होती।
की जिसने भी खोज, मिले उसको ही मोती।।

***

रोना कभी न हो सका, बाधा का उपचार।
जो साहस से काम ले, वही उतरता पार।।
वही उतरता पार, करो मजबूत इरादा।
लगे रहो अविराम, जतन यह सीधा सादा।
‘ठकुरेला’ कविराय, न कुछ भी यूँ ही होना।
लगो काम में यार, छोड़कर पल पल रोना।।

***

हँसना सेहत के लिये, अति हितकारी, मीत।
कभी न करें मुकाबला, मधु, मेवा, नवनीत।।
मधु, मेवा, नवनीत, दूध, दधि, कुछ भी खायें।
अवसर हो उपयुक्त, साथियो, हँसें, हँसायें।
‘ठकुरेला’ कविराय, पास हँसमुख के बसना।
रखो समय का ध्यान, कभी असमय मत हँसना।।

***

मैली चादर ओढ़कर, किसने पाया मान।
उजले निखरे रूप का, दुनिया में गुणगान ।।
दुनिया मे गुणगान, दाग किसको भाते हैं।
दाग-हीन छवि देख, सभी दौडे़ आते हैं।
‘ठकुरेला’ कविराय, यही जीवन की शैली।
जीयें दाग-विहीन, फेंक कर चादर मैली।।

***

सुखिया वह जो कर सके, निज मन पर अधिकार।
सुख दुःख मन के खेल हैं, इतना ही है सार।।
इतना ही है सार, खेल मन के हैं सारे।
मन जीता तो जीत, हार है मन के हारे।
‘ठकुरेला’ कविराय, बनो निज मन के मुखिया।
जो मन को ले जीत, वही बन जाता सुखिया।।

***

पल पल जीवन जा रहा, कुछ तो कर शुभ काम।
जाना हाथ पसार कर, साथ न चले छदाम।।
साथ न चले छदाम, दे रहे खुद को धोखा।
चित्रगुप्त के पास, कर्म का लेखा जोखा।
‘ठकुरेला’ कविराय, छोड़िये सभी कपट छल।
काम करो जी नेक, जा रहा जीवन पल पल।।

***

असफलता को देखकर, रोक न देना काम।
मंजिल उनको ही मिली, जो चलते अविराम।।
जो चलते अविराम, न बाधाओं से डरते।
असफलता को देख, जोश दूना मन भरते।
‘ठकुरेला’ कविराय, समय टेड़ा भी टलता।
मत बैठो मन मार, अगर आये असफलता।।

***

मानवता ही है सखे, सबसे बढ कर धर्म।
जिसमें परहित निहित हो, करना ऐसे कर्म।।
करना ऐसे कर्म, सभी सुख मानें मन में।
सुख की बहे बयार, सहज सब के जीवन में।
‘ठकुरेला’ कविराय, सभी में आये समता।
धरती पर हो स्वर्ग, फले फूले मानवता।।

***

वाणी में ही जहर है, वाणी जीवनदान।
वाणी के गुण दोष का, सहज नहीं अनुमान।।
सहज नहीं अनुमान, कौन सी विपदा लाये।
जग में यश, धन, मान, मीत, सुख, राज दिलाये।
‘ठकुरेला’ कविराय, विविध विधि हो कल्याणी।
हो विवेक से युक्त, सरल, रसभीनी वाणी।।

***

पाया उसने ही सदा, जिसने किया प्रयास।
कभी हिरण जाता नहीं, सोते सिंह के पास।।
सोते सिंह के पास, राह तकते युग बीते।
बैठे ठाले लोग, रहेंगे हरदम रीते।
‘ठकुरेला’ कविराय, समय ने यह समझाया।
जिसने किया प्रयास, मधुर फल उसने पाया।।

***

जल मे रहकर मगर से, जो भी ठाने बैर।
उस अबोध की साथियो, रहे किस तरह खैर।।
रहे किस तरह खैर, बिछाये पथ में काँटे।
रहे समस्या-ग्रस्त, और दुख खुद को बाँटे।
‘ठकुरेला’ कविराय, बने बिगड़े सब पल में।
रखो मगर से प्रीति, अगर रहना है जल में।।

***

आ जाते हैं जब कभी, मन में बुरे विचार।
उन्हें ज्ञान के खड़्ग से, ज्ञानी लेता मार।।
ज्ञानी लेता मार, और अज्ञानी फँसते।
बिगड़ें उनके काम, लोग सब उन पर हँसते।
‘ठकुरेला’ कविराय, असर अपना दिखलाते।
दुःख की जड़ कुविचार, अगर मन मे आ जाते।।

***

होता है मुश्किल वही, जिसे कठिन लें मान।
करें अगर अभ्यास तो, सब कुछ है आसान।।
सब कुछ है आसान, बहे पत्थर से पानी।
कोशिश करता मूढ़, और बन जाता ज्ञानी।
‘ठकुरेला’ कविराय, सहज पढ़ जाता तोता।
कुछ भी नही अगम्य, पहँुच में सब कुछ होता।।

***

भाषा में हो मधुरता, जगत करेगा प्यार।
मीठे शब्दों ने किया, सब पर ही अधिकार।
सब पर ही अधिकार, कोकिला किसे न भाती।
सब हो जाते मुग्ध, मधुर सुर में जब गाती।
‘ठकुरेला’ कविराय, जगाती मन में आशा।
सहज बनाये काम, मंत्र है मीठी भाषा।।

***

सोता जल्दी रात को, जल्दी जागे रोज।
उसका मन सुख से भरे, मुख पर छाये ओज।
मुख पर छाये ओज, निरोगी बनती काया।
भला करे भगवान्, और घर आये माया।
‘ठकुरेला’ कविराय, बहुत से अवगुण खोता।
शीघ्र जगे जो नित्य, रात को जल्दी सोता।।

***

फीकी लगती जिन्दगी, रंगहीन से चित्र।
जब तक मिले न आपको, कोई प्यारा मित्र।।
कोई प्यारा मित्र, जिसे हमराज बनायें।
हों रसदायक बात, व्यथा सब सुनें, सुनायें।
‘ठकुरेला’ कविराय, व्याधि हर लेता जी की।
जब तक मिले न मित्र, जिन्दगी लगती फीकी।।

***

जब तक ईश्वर की कृपा, तब तक सभी सहाय।
होती रहती सहज ही, श्रम से ज्यादा आय।।
श्रम से ज्यादा आय, फाड़कर छप्पर मिलता।
बाधा रहे न एक, कुसुम सा तन मन खिलता।
‘ठकुरेला’ कविराय, नहीं रहता कोई डर।
सुविधा मिलें तमाम, साथ हो जब तक ईश्वर।।

***

सोना चांदी सम्पदा, सबसे बढ़कर प्यार।
ढाई आखर प्रेम के, इस जीवन का सार।।
इस जीवन का सार, प्रेम से सब मिल जाता।
मिलें सभी सुख भोग, मान, यश, मित्र, विधाता।
‘ठकुरेला’ कविराय, प्रेम जैसा क्या होना।
बडा कीमती प्रेम, प्रेम ही सच्चा सोना।।

***

जनता उसकी ही हुई, जिसके सिर पर ताज।
या फिर उसकी हो सकी, जो हल करता काज।।
जो हल करता काज, समय असमय सुधि लेता।
सुनता मन की बात, जरूरत पर कुछ देता।
‘ठकुरेला’ कविराय, वही मनमोहन बनता।
जिसने बांटा प्यार, हुई उसकी ही जनता।।

***

धीरे धीरे समय ही, भर देता है घाव।
मंजिल पर जा पहुंचती, डगमग होती नाव।।
डगमग होती नाव, अन्ततः मिले किनारा।
मन की मिटती पीर, टूटती तम की कारा।
‘ठकुरेला’ कविराय, खुशी के बजें मंजीरे।
धीरज रखिये मीत, मिले सब धीरे धीरे।।

***

तिनका तिनका जोड़कर, बन जाता है नीड़।
अगर मिले नेतृत्व तो, ताकत बनती भीड़।।
ताकत बनती भीड़, नये इतिहास रचाती।
जग को दिया प्रकाश, मिले जब दीपक, बाती।
‘ठकुरेला’ कविराय, ध्येय सुन्दर हो जिनका।
रचते श्रेष्ठ विधान, मिले सोना या तिनका।।

***

पछताना रह जायेगा, अगर न पाये चेत।
रोना धोना व्यर्थ है, जब खग चुग लें खेत।।
जब खग चुग लें खेत, फसल को चैपट कर दें।
जीवन में अवसाद, निराशा के स्वर भर दें।
‘ठकुरेला’ कविराय, समय का मोल न जाना।
रहते रीते हाथ, उम्र भर का पछताना।।

***

कहते आये विद्वजन, यदि मन में हो चाह।
पा लेता है आदमी, अँधियारे में राह।।
अँधियारे में राह, न रहती कोई बाधा।
मिला उसे गंतव्य, लक्ष्य जिसने भी साधा।
‘ठकुरेला’ कविराय, खुशी के झरने बहते।
चाह दिखाती राह, गहन अनुभव यह कहते।।

***

मानव मानव एक से, उन्हें न समझें भिन्न।
ये आपस के भेद ही, मन को करते खिन्न।।
मन को करते खिन्न, आपसी प्रेम मिटाते।
उग आते विष बीज, दिलों में दूरी लाते।
‘ठकुरेला’ कविराय, बैठता मन में दानव।
आते हैं कुविचार, विभाजित हो यदि मानव।।

***

आजादी का अर्थ है, सब ही रहें स्वतंत्र।
किन्तु बंधे हों सूत्र में, जपें प्रेम का मंत्र।।
जपें प्रेम का मंत्र, और का दुख पहचानें।
दें औरों को मान, न केवल अपनी तानें।
‘ठकुरेला’ कविराय, बात है सीधी सादी।
दे सबको सुख-चैन, वही सच्ची आजादी।।

***

बढ़ता जाता जगत में, हर दिन उसका मान।
सदा कसौटी पर खरा, रहता जो इन्सान।।
रहता जो इन्सान, मोद सबके मन भरता।
रखे न मन में लोभ, न अनुचित बातें करता।
‘ठकुरेला’ कविराय, कीर्ति- किरणों पर चढ़ता।
बनकर जो निष्काम, पराये हित में बढ़ता।।

***

बोता खुद ही आदमी, सुख या दुख के बीज।
मान और अपमान का, लटकाता ताबीज।।
लटकाता ताबीज, बहुत कुछ अपने कर में।
स्वर्ग नर्क निर्माण, स्वयं कर लेता घर में।
‘ठकुरेला’ कविराय, न सब कुछ यूं ही होता।
बोता स्वयं बबूल, आम भी खुद ही बोता।।

***

चन्दन चन्दन ही रहा, रहे सुगन्धित अंग।
बदल न सके स्वभाव को, मिलकर कई भुजंग।।
मिलकर कई भुजंग, प्रभावित कभी न करते।
जिनका संत स्वभाव, खुशी औरों में भरते।
‘ठकुरेला’ कविराय, गुणों का ही अभिनंदन।
देकर मधुर सुगन्ध, पूज्य बन जाता चन्दन।।

***

कभी न रहते एक से, जीवन के हालात।
गिर जाते हैं सूखकर, कोमल चिकने पात।।
कोमल चिकने पात, हाय, मिट्टी में मिलते।
कलियां बनती फूल, फूल भी सदा न खिलते।
‘ठकुरेला’ कविराय, समय धारा में बहते।
पल पल बदलें रूप, एकरस कभी न रहते।।

***

ताकत ही सब कुछ नहीं, समय समय की बात।
हाथी को मिलती रही, चींटी से भी मात।।
चींटी से भी मात, धुरंधर धूल चाटते।
कभी कभी कुछ तुच्छ, बड़ों के कान काटते।
‘ठकुरेला’ कविराय, हुआ इतना ही अवगत।
समय बड़ा बलवान, नहीं धन, पद या ताकत ।।

***

अन्तर्मन को बेधती, शब्दों की तलवार।
सहज नहीं है जोड़ना, टूटे मन के तार।।
टूटे मन के तार, हृदय आहत हो जाये।
होता नहीं निदान, वैद्य धन्वंतरि आये।
‘ठकुरेला’ कविराय, सरसता दो जीवन को।
बोलो ऐसे शब्द, रुचें जो अंतर्मन को।।

***

खटिया छोड़ें भोर में, पीवें ठण्डा नीर।
मनुआ खुशियों से भरे, रहे निरोग शरीर।।
रहे निरोग शरीर, वैद्य घर कभी न आये।
यदि कर लें व्यायाम, बज्र सा तन बन जाये।
‘ठकुरेला’ कविराय, भली है सुख की टटिया।
जल्दी सोयें नित्य, शीघ्र ही छोड़ें खटिया।।

***

किसने पूछा है उसे, जिसको रहा अभाव।
कब जाती उस पार तक, यदि जर्जर हो नाव।।
यदि जर्जर हो नाव, बहुत ही दूर किनारा।
जब कुछ होता पास, मान देता जग सारा।
‘ठकुरेला’ कविराय, पा लिया वैभव जिसने।
सदा उसी की पूछ, उसे ठुकराया किसने।।

***

आता हो यदि आपको, बात बात पर ताव।
समझो खुद पर छिड़कते, तुम खुद ही तेजाब।।
तुम खुद ही तेजाब, जिन्दगी का रस जलता।
क्रोध-कढ़ाई मध्य, आदमी खुद को तलता।
‘ठकुरेला’ कविराय, चाँद सुख का छिप जाता।
बहुविधि करे अनर्थ, क्रोध जब जब भी आता।।

***

करता रहता है समय, सबको ही संकेत।
कुछ उसको पहचानते, पर कुछ रहें अचेत।।
पर कुछ रहें अचेत, बन्द कर बुद्धि झरोखा।
खाते रहते प्रायः, वही पग पग पर धोखा।
‘ठकुरेला’ कविराय, मंदमति हर क्षण डरता।
जिसे समय का ज्ञान, वही निज मंगल करता।।

***

रीता घट भरता नहीं, यदि उसमें हो छेद।
जड़मति रहता जड़ सदा, नित्य पढ़ाओ वेद।।
नित्य पढ़ाओ वेद, बुद्धि रहती है कोरी।
उबटन करके भैंस, नहीं हो सकती गोरी।
‘ठकुरेला’ कविराय, व्यर्थ ही जीवन बीता।
जिसमें नहीं विवेक, रहा वह हर क्षण रीता।।

***

थोथी बातों से कभी, जीते गये न युद्ध।
कथनी पर कम ध्यान दे, करनी करते बुद्ध।।
करनी करते बुद्ध, नया इतिहास रचाते।
करते नित नव खोज, अमर जग में हो जाते।
‘ठकुरेला’ कविराय, सिखाती सारी पोथी।
ज्यों ऊसर में बीज, वृथा हैं बातें थोथी।।

***

सिखलाता आया हमें, आदिकाल से धर्म।
मूल्यवान है आदमी, यदि अच्छे हों कर्म।।
यदि अच्छे हों कर्म, न केवल बात बनाये।
रखे और का ध्यान, न पशुवत खुद ही खाये।
‘ठकुरेला’ कविराय, मनुजता से हो नाता।
है परहित ही धर्म, शास्त्र सबको सिखलाता।।

***

जीवन के भवितव्य को, कौन सका है टाल।
किन्तु प्रबुद्धों ने सदा, कुछ हल लिये निकाल।।
कुछ हल लिये निकाल, असर कुछ कम हो जाता।
नहीं सताती धूप, शीश पर हो जब छाता।
‘ठकुरेला’ कविराय, ताप कम होते मन के।
खुल जाते हैं द्वार, जगत में नवजीवन के।।

***

आ जाते हैं और के, जो गुण हमको रास।
वे गुण अपने हो सकें, ऐसा करें प्रयास।।
ऐसा करें प्रयास, और गुणवान कहायें।
बदलें निज व्यवहार, प्रशंसा सबसे पायें।
‘ठकुरेला’ कविराय, गुणी ही सबको भाते।
जग बन जाता मित्र, सहज ही सुख आ जाते।।

***

बहता जल के साथ में, सारा ही जग मीत।
केवल जीवन बह सका, धारा के विपरीत।।
धारा के विपरीत, नाव मंजिल तक जाती।
करती है संघर्ष, जिन्दगी हँसती गाती।
‘ठकुरेला’ कविराय, सभी का अनुभव कहता।
धारा के विपरीत, सिर्फ जीवन ही बहता।।

***

आगे बढ़ता साहसी, हार मिले या हार।
नयी ऊर्जा से भरे, बार-बार हर बार।।
बार- बार हर बार, विघ्न से कभी न डरता।
खाई हो कि पहाड़, न पथ में चिंता करता।
‘ठकुरेला’ कविराय, विजय रथ पर जब चढ़ता।
हों बाधायें लाख, साहसी आगे बढ़ता।।

***

ताली बजती है तभी, जब मिलते दो हाथ।
एक एक ग्यारह बनें, अगर खड़े हों साथ।।
अगर खड़े हों साथ, अधिक ही ताकत होती।
बनता सुन्दर हार, मिलें जब धागा, मोती।
‘ठकुरेला’ कविराय, सुखी हो जाता माली।
खिलते फूल अनेक, खुशी में बजती ताली ।।

***

बीते दिन का क्रय करे, इतना कौन अमीर।
कभी न वापस हो सके, धनु से निकले तीर।।
धनु से निकले तीर, न खुद तरकश में आते।
मुँह से निकले शब्द, नया इतिहास रचाते।
‘ठकुरेला’ कविराय, भले कोई जग जीते।
थाम सका है कौन, समय जो पल पल बीते।।

***

आती रहती आपदा, जीवन में सौ बार।
किन्तु कभी टूटें नहीं, उम्मीदों के तार।।
उम्मीदों के तार, नया विश्वास जगायें।
करके सतत प्रयास, विजय का ध्वज फहरायें।
‘ठकुरेला’ कविराय, खुशी तन मन पर छाती।
जब बाधायें जीत, सफलता द्वारे आती।।

***

यदि हम चाहें सीखना, शिक्षा देती भूल।
अर्थवान होती रहीं, कुछ बातें प्रतिकूल।।
कुछ बातें प्रतिकूल, रंग जीवन में भरतीं।
धारायें विपरीत, बहुत उद्वेलित करतीं।
‘ठकुरेला’ कविराय, सुखद संबन्ध निबाहें।
सबसे मिलती सीख, सीखना यदि हम चाहें।।

***

चुप रहना ही ठीक है, कभी न भला प्रलाप।
काम आपका बोलता, जग में अपने आप।।
जग में अपने आप, दूर तक खुशबू जाती।
तम हर लेती ज्योति, कभी गुण स्वयं न गाती।
‘ठकुरेला’ कविराय, स्वयं के गुण क्या कहना।
करके अच्छे काम, भुला देना, चुप रहना।।

***

रत्नाकर सबके लिये, होता एक समान।
बुद्धिमान मोती चुने, सीप चुने नादान।।
सीप चुने नादान, अज्ञ मूंगे पर मरता।
जिसकी जैसी चाह, इकट्ठा वैसा करता।
‘ठकुरेला’ कविराय, सभी खुश इच्छित पाकर।
हैं मनुष्य के भेद, एक सा है रत्नाकर।।

***

यह जीवन है बांसुरी, खाली खाली मीत।
श्रम से इसे संवारिये, बजे मधुर संगीत।।
बजे मधुर संगीत, खुशी से सबको भर दे।
थिरकें सबके पांव, हृदय को झंकृत कर दे।
‘ठकुरेला’ कविराय, महकने लगता तन मन।
श्रम के खिलें प्रसून, मुस्कुराता यह जीवन।।

***

तन का आकर्षण रहा, बस यौवन पर्यन्त।
मन की सुंदरता भली, कभी न होता अंत।।
कभी न होता अंत, सुशोभित जीवन करती।
इसकी मोहक गंध, सभी में खुशियाँ भरती।
‘ठकुरेला’ कविराय, मूल्य है सुन्दर मन का।
रहता है दिन चार, मित्र आकर्षण तन का।।

***

दोष पराये भूलता, वह उत्तम इंसान।
याद रखे निज गलतियां, होता वही महान।।
होता वही महान, सीख ले जो भूलों से।
चुने विजय के फूल, न घबराये शूलों से।
‘ठकुरेला’ कविराय, स्वयं को मुकुर दिखाये।
खुद की रखे संभाल, देखकर दोष पराये।।

***

चन्दन की मोहक महक, मिटा न सके भुजंग।
साधु न छोड़े साधुता, खल बसते हों संग।।
खल बसतें हों संग, नहीं अवगुण अपनाता।
सुन्दर शील स्वभाव, सदा आदर्श सिखाता।
‘ठकुरेला’ कविराय, गुणों का ही अभिनन्दन।
गुण के कारण पूज्य, साधु हो या फिर चन्दन।।

***

भातीं सब बातें तभी, जब हो स्वस्थ शरीर।
लगे बसन्त सुहावना, सुख से भरे समीर।।
सुख से भरे समीर, मेघ मन को हर लेते।
कोयल, चातक, मोर, सभी अगणित सुख देते।
‘ठकुरेला’ कविराय, बहारें दौड़ी आतीं।
तन मन रहे अस्वस्थ, कौन सी बातें भातीं।।

***

जीना है अपने लिये, पशु को भी यह भान।
परहित में मरता रहा, युग युग से इंसान।।
युग युग से इंसान, स्वार्थ को किया तिरोहित।
द्रवित करे पर-पीर, पराये सुख पर मोहित।
‘ठकुरेला’ कविराय, गरल परहित में पीना।
यह जीवन दिन चार, जगत हित में ही जीना।।

***

रहता है संसार में सदा न कुछ अनुकूल।
खिलकर कुछ दिन बाग़ में, गिर जाते हैं फूल।।
गिर जाते हैं फूल, एक दिन पतझड़ आता।
रंग, रूप, रस, गंध, एकरस क्या रह पाता।
‘ठकुरेला’ कविराय, समय का दरिया बहता।
जग परिवर्तनशील, न कुछ स्थाई रहता।।

***

चलता राही स्वयं ही, लोग बताते राह।
कब होता संसार में, कर्म बिना निर्वाह।।
कर्म बिना निर्वाह, न कुछ हो सका अकारण।
यह सारा संसार, कर्म का ही निर्धारण।
‘ठकुरेला’ कविराय, कर्म से हर दुख टलता।
कर्महीनता मृत्यु, कर्म से जीवन चलता।।

***

रिश्ते-नाते, मित्रता, समय, स्वास्थ्य, सम्मान।
खोने पर ही हो सका, सही मूल्य का भान।।
सही मूल्य का भान, पास रहते कब होता।
पिंजरा शोभाहीन, अगर उड़ जाये तोता।
‘ठकुरेला’ कविराय, अल्पमति समझ न पाते।
रखते बडा महत्व, मित्रता, रिश्ते-नाते।।

***

छाया कितनी कीमती, बस उसको ही ज्ञान।
जिसने देखें हो कभी, धूप भरे दिनमान।।
धूप भरे दिनमान, फिरा हो धूल छानता।
दुख सहकर ही व्यक्ति, सुखों का मूल्य जानता।
‘ठकुरेला’ कविराय, बटोही ने समझाया।
देती बड़ा सुकून, थके हारे को छाया।।

***

मकड़ी से कारीगरी, बगुले से तरकीब।
चींटी से श्रम सीखते, इस वसुधा के जीव।।
इस वसुधा के जीव, शेर से साहस पाते।
कोयल के मृदु बोल, प्रेरणा नयी जगाते।
‘ठकुरेला’ कविराय, भलाई सबने पकड़ी।
सबसे मिलती सीख, श्वान, घोड़ा या मकड़ी।।

***

निर्मल सौम्य स्वभाव से, बने सहज सम्बन्ध।
बरबस खींचे भ्रमर को, पुष्पों की मृदुगंध।।
पुष्पों की मृदुगंध, तितलियां उड़कर आतीं।
स्वार्थहीन हों बात, उम्र लम्बी तब पातीं।
‘ठकुरेला’ कविराय, मोह लेती नद कल कल।
रखतीं अमिट प्रभाव, वृत्तियां जब हों निर्मल।।

***

मालिक है सच में वही, जो भोगे, दे दान।
धन जोड़े, रक्षा करे, उसको प्रहरी मान।।
उसको प्रहरी मान, खर्च कर सके न पाई।
हर क्षण धन का लोभ, रात दिन नींद न आई।
‘ठकुरेला’ कविराय, लालसा है चिर-कालिक।
मेहनत की दिन रात, बने चिंता के मालिक।।

***

बलशाली के हाथ में, बल पाते हैं अस्त्र।
कायर के संग साथ में, अर्थहीन सब शस्त्र।।
अर्थहीन सब शस्त्र, तीर, तलवार, कटारी।
बरछी, भाला, तोप, गदा, बन्दूक, दुधारी।
‘ठकुरेला’ कविराय, बाग का बल ज्यों माली।
हथियारों का मान, बढ़ाता है बलशाली।।

***

माटी अपने देश की, पुलकित करती गात।
मन में खिलते सहज ही, खुशियों के जलजात।।
खुशियों के जलजात, सदा ही लगती प्यारी।
हों निहारकर धन्य, करें सब कुछ बलिहारी।
‘ठकुरेला’ कविराय, चली आई परिपाटी।
लगी स्वर्ग से श्रेष्ठ, देश की सौंधी माटी।।

***

आया कभी न लौटकर, समय गया जो बीत।
फिर से दूध न बन सका, मटकी का नवनीत।।
मटकी का नवनीत, जतन कर कोई हारे।
फिर से चढ़े न शीर्ष, कभी नदिया के धारे।
‘ठकुरेला’ कविराय, सभी ने यह समझाया।
समय बड़ा अनमोल, लौटकर कभी न आया।।

***

जीवन जीना है कला, जो जाता पहचान।
विकट परिस्थिति भी उसे, लगती है आसान।।
लगती है आसान, नहीं दुख से घबराता।
ढूंढ़े मार्ग अनेक, और बढ़ता ही जाता।
‘ठकुरेला’ कविराय, नहीं होता विचलित मन।
सुख-दुख, छाया-धूप, सहज बन जाता जीवन ।।

– त्रिलोक सिंह ठकुरेला

Language: Hindi
331 Views
📢 Stay Updated with Sahityapedia!
Join our official announcements group on WhatsApp to receive all the major updates from Sahityapedia directly on your phone.
You may also like:
खाक हुई शमशान में,
खाक हुई शमशान में,
sushil sarna
दफन करके दर्द अपना,
दफन करके दर्द अपना,
Mamta Rani
करूँ प्रकट आभार।
करूँ प्रकट आभार।
Anil Mishra Prahari
4401.*पूर्णिका*
4401.*पूर्णिका*
Dr.Khedu Bharti
ग़ज़ल
ग़ज़ल
Seema Garg
🙏दोहा🙏
🙏दोहा🙏
राधेश्याम "रागी"
पहचान
पहचान
surenderpal vaidya
దీపావళి కాంతులు..
దీపావళి కాంతులు..
डॉ गुंडाल विजय कुमार 'विजय'
हौसले हमारे ....!!!
हौसले हमारे ....!!!
Kanchan Khanna
हाथों में हाथ लेकर मिलिए ज़रा
हाथों में हाथ लेकर मिलिए ज़रा
हिमांशु Kulshrestha
इसलिए कठिनाईयों का खल मुझे न छल रहा।
इसलिए कठिनाईयों का खल मुझे न छल रहा।
Pt. Brajesh Kumar Nayak
........,,?
........,,?
शेखर सिंह
माशा अल्लाह, तुम बहुत लाजवाब हो
माशा अल्लाह, तुम बहुत लाजवाब हो
gurudeenverma198
*प्रकटो हे भगवान धरा पर, सज्जन सब तुम्हें बुलाते हैं (राधेश्
*प्रकटो हे भगवान धरा पर, सज्जन सब तुम्हें बुलाते हैं (राधेश्
Ravi Prakash
दिगपाल छंद{मृदुगति छंद ),एवं दिग्वधू छंद
दिगपाल छंद{मृदुगति छंद ),एवं दिग्वधू छंद
Subhash Singhai
बुद्धित्व क्षणिकाँये
बुद्धित्व क्षणिकाँये
DR ARUN KUMAR SHASTRI
मतदान
मतदान
Aruna Dogra Sharma
प्रेम सिर्फ आश्वासन नहीं देता बल्कि उन्हें पूर्णता भी देता ह
प्रेम सिर्फ आश्वासन नहीं देता बल्कि उन्हें पूर्णता भी देता ह
पूर्वार्थ
गजल
गजल
डॉ सगीर अहमद सिद्दीकी Dr SAGHEER AHMAD
आजकल का प्राणी कितना विचित्र है,
आजकल का प्राणी कितना विचित्र है,
Divya kumari
प्रकृति का बलात्कार
प्रकृति का बलात्कार
Atul "Krishn"
"साम","दाम","दंड" व् “भेद" की व्यथा
Dr. Harvinder Singh Bakshi
संसार का स्वरूप (2)
संसार का स्वरूप (2)
ठाकुर प्रतापसिंह "राणाजी "
एक कवि की कविता ही पूजा, यहाँ अपने देव को पाया
एक कवि की कविता ही पूजा, यहाँ अपने देव को पाया
Dr.Pratibha Prakash
#मुक्तक-
#मुक्तक-
*प्रणय*
"अच्छी थी, पगडंडी अपनी,
Rituraj shivem verma
मुझे अकेले ही चलने दो ,यह है मेरा सफर
मुझे अकेले ही चलने दो ,यह है मेरा सफर
कवि दीपक बवेजा
बन के आंसू
बन के आंसू
Dr fauzia Naseem shad
करो तारीफ़ खुलकर तुम लगे दम बात में जिसकी
करो तारीफ़ खुलकर तुम लगे दम बात में जिसकी
आर.एस. 'प्रीतम'
एक गुजारिश तुझसे है
एक गुजारिश तुझसे है
Buddha Prakash
Loading...