त्योहार का आनंद
त्योहार का आनंद
“बेटा रमेश, इस बार दिवाली के लिए कब आ रहे हो आप लोग ?” पिताजी ने पूछा।
“इस बार आ पाना मुश्किल लग रहा है पापा। आपको तो पता ही है कि पुलिस की नौकरी में छुट्टियाँ आसानी से कहाँ मिलती हैं। ऊपर से अब तो आचार-संहिता भी लागू हो गया है, तो जिला कलेक्टर से बिना अनुमति के मुख्यालय भी छोड़ नहीं सकते।” रमेश ने अपनी मजबूरी बताई।
“हाँ, सो तो है बेटा। देख लो कोशिश करके। यदि आ सको, तो अच्छा रहेगा। इसी त्योहार के बहाने सबसे मेल-मुलाकात हो जाती है।” पिताजी ने वही बात दुहराई, जो दादाजी उनसे कहा करते थे।
“पापा, यदि मुझे छुट्टी और परमिशन मिल भी गई, तो रमा को भी मिलना मुश्किल होगा। आचार-संहिता के अलावा हॉस्पिटल के अलग रूल्स होते हैं। दिवाली में उनकी एमरजेंसी ड्यूटी लगती है।” रमेश की बात पूरी होती, उससे पहले ही रमा ने उससे फोन लेकर कहा, “पापाजी प्रणाम। मम्मी जी प्रणाम। पापाजी कैसे हैं आप ?”
“खुश रहो बेटा। हम ठीक हैं। कैसे हैं आप सब ?” पिताजी ने पूछा।
“आप सबके आशीर्वाद से यहाँ सब बढ़िया है पापाजी। इस बार दिवाली में हमारा वहाँ गाँव में आना तो संभव नहीं होगा। पर पापाजी आप चाहें, तो हम इस बार भी दिवाली एक साथ मिल-जुलकर मना सकते हैं।” रमा ने कहा।
“वो कैसे बेटा ?” पिताजी ने आश्चर्य से पूछा।
“पापाजी, प्लीज इस बार आप मम्मीजी और हमारे देवर जी को लेकर यहाँ आ जाइए। हम सब हर बार गाँव में दिवाली मनाते हैं, इस बार यहीं मना लेंगे। प्लीज़ आप इनकार मत कीजिएगा। आप जब कहेंगे, हम आप लोगों के लिए गाड़ी भिजवा देंगे। दोनों बच्चों की छुट्टियाँ लग गई हैं। वे ड्राइवर के साथ आपको ले जाने गाँव चले जाएँगे।”
बहु ने इतनी आत्मीयता से कहा कि पिताजी मना नहीं कर सके।
डॉ. प्रदीप कुमार शर्मा
रायपुर, छत्तीसगढ़