तो गलत कहाँ हूँ मैं ?
कौन कहता है की तुमसे मेरी नाराज़गी ही गलत है ,
तुम्हारी नज़रों ने मेरे सिवा हर किसी को देखा ,
तो गलत कहाँ हूँ मैं ?
तुमने मेरे हाथों को छोड़ औरों का दामन थामा ,
तो गलत कहाँ हूँ मैं ?
मेरी आवाज़ को छोड़ गैरों की ही आवाज़ सुनना गवारा समझा ,
तो गलत कहाँ हूँ मैं ,
तुम्हारा वक़्त मुझे छोड़ हर एक को मयस्सर रहा ,
तो गलत कहाँ हूँ मैं ?
तुमने कुछ यूँ बेगानापन दिखाया
मानो मुझे कभी पहचाना ही नहीं था ,
तो गलत कहाँ हूँ मैं ?
तुम कहते हो की तुम मेरा इंतेख़ाब तो हो
लेकिन मैं तुम्हारी मंज़िल नहीं ,
तो गलत कहाँ हूँ मैं ?
आज कहते हो की तुमसे मेरा वास्ता ही क्या ?
गोया मैं वो शमा हूँ जिसका परवाना ही उससे मुँह मोड़ रहा,
जिस ख़ुलूस से लाये थे मुझे ,
उतनी ही बेहयाई से मेरी मोहब्बत को यकतरफ़ा क़रार दे डाला ,
तो ग़लत कहाँ हूँ मैं ?
मेरी वफाओं को जब तुमने बेवफाई ही नज़र की ,
मेरा तुमसे नाराज़ हो जाना बहुत कम था ,
जब हर तरफ़ा तुम ही मेरे गुनहगार हो ,
तो गलत कहाँ हूँ मैं ?
-द्वारा नेहा ‘आज़ाद’