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19 Feb 2017 · 5 min read

तेवरी में करुणा का बीज-रूप +रमेशराज

तेवरी अन्त्यानुप्रासिक व्यवस्था से बंधी एक ऐसी कविता है, जिसमें सत्योन्मुखी संवेदनशीलता की रागात्मकता अन्तर्निहित है। तेवरी की यह रागात्मक चेतना, एक तरफ जहां शोषित, पीड़ित, दलित वर्ग की भूख, गरीबी, घुट-घुटकर जीने की विवशता को करुणा से सराबोर होकर उभारती है, वही इस वर्ग का ‘शोषक एवं शक्तिशाली वर्ग द्वारा किये गये शोषण’ का विचार इसे विरोध, विद्रोह, आक्रोश, असन्तोष आदि से सिक्त कर डालता है। अतः तेवरी की रसप्रक्रिया को समझने के लिए आवश्यक यह है कि इसके भीतर बीज रूप में स्थित करुणा की संवेदनशील प्रक्रिया को समझा जाये, तदोपरान्त दलित वर्ग के रागतत्त्व को खण्डित करने वाले वर्ग के प्रति उभरे क्रोध, विद्रोह, असन्तोष आदि तक पहुंचने का प्रयास किया जाये।
रसमर्मज्ञ आचार्य शुक्ल ‘काव्य में लोकमंगल की साधना अवस्था’ निबन्ध के अंतर्गत कहते हैं-‘‘लोक में फैली दुःख की छाया को हटाने में ब्रह्म की आनंदकला जो शक्तिमय रूप धारण करती है, उसकी भीषणता में भी अद्भुत मनोहरता, कटुता में भी अपूर्व मधुरता, प्रचण्डता में भी गहरी आद्रता साथ लगी रहती है।’’ इसी तथ्य को आगे बढ़ाते हुए वह मानते हैं कि-‘भावों की छानबीन करने पर मंगल का विधान करने का वाले दो भाव ठहरते हैं-करुणा और प्रेम। करुणा की गति रक्षा की ओर होती है और प्रेम की रंजन की ओर। लोक में प्रथम साध्य रक्षा है, रंजन का अवसर उसके पीछे आता है, अतः साधना अवस्था या प्रयत्नपक्ष को लेकर चलने वाले काव्यों का ‘बीजरूप करुणा’ ही ठहरता है।’
आचार्य शुक्ल के उक्त तथ्यों को तेवरी के सन्दर्भ में उठाने का हमारा विशेष उद्देश्य यह है कि जब तक यह नहीं समझा जाता कि यदि करुणा की गति रक्षा की ओर होती है और काव्य का प्रथम प्रयोजन लोकरंजन न होकर, लोक रक्षा ही है, तो करुणा की गति किस प्रकार लोक की रक्षा करती है? ये तथ्य तब तक स्पष्ट नहीं हो सकता, जब तक तेवरी की सत्योन्मुखी संवेदनशीलता और रागात्मकचेतना को नहीं समझा जा सकता।
चूंकि तेवरी का प्रथम प्रयोजन या उद्देश्य लोकरक्षा है, लोकरंजन नहीं, अतः अनुभूति की रमणीयता का अर्थ, रमणीय-शब्दावली मानकर, कोरे भाव के सौन्दर्य को ही कविता घोषित कर, कविता का रसास्वावन ग्रहण करने वाले आचार्य डा. नगेन्द्र जैसे कलावादी या आनन्दवादी रसाचार्यों की रसपद्धति से तेवरी की रसप्रक्रिया को स्पष्ट नहीं किया जा सकता, क्योंकि आचार्य शुक्ल के अनुसार-‘यदि कला का अर्थ यही लेना है, जो कामशास्त्र की चोंसठ कलाओं में है अर्थात् मनोरंजन या उपभोग मात्र का विधायक, तो काव्य के सम्बन्ध में दूर ही से इस शब्द को नमस्कार।’
तेवरी रसप्रक्रिया के सम्बन्ध में विषयान्तर न करते हुए, यह समझ लिया जाय कि तेवरी में करुणा, बीजरूप में किस प्रकार प्रकार स्थित हुई है और करुणा का यह बीजरूप लोकरक्षा के लिये किस प्रकार की गतिशील अवस्था ग्रहण करता है, आइये इसे पहचानें-
करुणा का सम्बन्ध किसी दीन दुःखी व्यक्ति की त्रासदी, यातना, विवशता, संघर्ष आदि से भरे उस जीवन से होता है, जिसमें वह व्यक्ति या समाज रोजी-रोटी की समस्या, बेरोजगारी, शोषण, असुविधा आदि के बीच अपने आपको रोता, बिलखता, छटपटाता पाता या महसूस करता है। लोक या समाज की यह शोक-दुःख और पीड़ा से भरी अवस्था, जब कवि के संवेदनशील मानसिक स्तरों का स्पर्श करती है तो वह यह विचार करने लगता है कि ‘अमुक व्यक्ति या समाज दुःख, पीड़ा आदि से ग्रस्त है।’
यह लोक या समाज के दुःख का विचार, कवि के शोक व दुःख का विषय बन जाता है। लेकिन यह दुःख या शोक, करुणा में तभी तब्दील होता है जबकि कवि इस वैचारिक अवस्था में आकर ऊर्जस्व होता है कि-‘हाय! हमारा लोक या समाज कितने दुःख दर्दों से ग्रस्त है, निर्बल है, असहाय है, शोषित है, पीडि़त है, दलित है। इसे किसी भी प्रकार इन समस्त त्रासद हालात से मुक्ति मिलनी ही चाहिए।’’
लोक या समाज को मुक्ति दिलाने या उसकी रक्षा करने का यह विचार ही कवि को जिस ऊर्जस्व अवस्था में ले जाता है, उस ऊर्जस्व अवस्था का नाम करुणा है। कवि के मन में जब तक लोकहित का उक्त विचार स्थायित्व ग्रहण किए रहता है, तब तक बीज रूप में करुणा उसके मन के संवेदनशील स्तरों को ऊर्जस्व बनाए रखती है। अतः यहां यह कहना अप्रासंगिक न होगा कि दूसरों के दुःखों के बीच आनन्द अवस्था को ग्रहण करने वाले या लोक के दुःख-दर्दों से कतराकर चलने वाले कवियों या मनुष्यों में करुणा की यह ऊर्जस्व अवस्था या तो विकसित ही नहीं होगी या उसके विकास की गत्यात्मकता व्यक्तिगत सन्तुष्टि या मात्र मित्रों, परिवारोंजनों आदि के बीच संकीर्ण दायरों में ही देखी जा सकेगी। क्योंकि आचार्य शुक्ल के अनुसार-‘‘ बीज रूप में अंतस्संज्ञा में स्थित करुणा इस ढब की होनी चाहिए कि इतने पुरवासी, इतने देशवासी या इतने मनुष्य पीड़ा पा रहे हैं, तो इसके द्वारा प्रवर्तित तीक्ष्ण या उग्र भावों का सौन्दर्य उत्तरोत्तर अधिक होगा।’’
तेवरी की रस-प्रक्रिया के सन्दर्भ में उक्त तथ्यों को स्पष्ट करने के लिए यहां ज्ञानेन्द्र साज की एक तेवरी का उदाहरण प्रस्तुत है…
‘हाथों को जोड़े खड़ा गुमसुम होरीराम
मिल जाए यदि कर्ज कुछ बनें बिगड़ते काम।
गोबर-धनिया के हुए सपने चकनाचूर
पूरा जीवन लिख गया महाजनों के नाम।
उक्त पंक्तियों में आलम्बन विभाव के रूप में शोषित निर्धन वर्ग के प्रतीक ‘होरीराम’ की विभिन्न प्रकार की यातनामय एवं शोषणयुक्त परिस्थितियां, निरन्तर संघर्ष के बावजूद होरी में जब असफलता और निराशा का समावेश करती हैं तो वह शोकाकुल हो उठता है। होरी के रूप में आलम्बन विभाव की दुर्दशाएं जब कवि की चेतना का स्पर्श करती हैं तो कवि इस विचार के कारण शोकाकुल हो उठता है कि-‘‘होरी का जीवन निर्धनता, अभावों एवं समस्याओं से ग्रस्त है। वह इन त्रासद हालातों में अत्यंत पीडि़त व दुःखी है।’’
होरी के दुःख और पीड़ा का यह ज्ञान कवि के मन में शोक को मात्र शोक ही बनाकर नहीं उभारता बल्कि यह शोक- ‘होरीराम किस तरह दुःखी है? उसे दुःख-भरी जि़ंदगी से मुक्ति मिलनी चाहिए’ जैसी वैचारिक प्रक्रिया से गुजारते हुए करुणा तक ले जाता है-
‘पल-पल यों जीते हुए झेलें कितना दर्द
भूख-गरीबी को मिले अब तो कहीं विराम।’
कवि के मन में करुणा सम्बन्धी रस की यह पूर्ण परिपाक अवस्था कवि की उस रागात्मक चेतना के कारण निर्मित हुयी है, जिसकी दृष्टि या चिन्तनधारा मानवतावादी है। कवि की यही मानवोन्मुखी रागात्मक चेतना लोक के पात्रों की दयनीय अवस्था से जब करुणा के रूप में उसकी अन्तस्संज्ञा के बीज रूप स्थित हो जाती है तो कवि इन्हीं लोक के पात्रों को प्रतीक रूप में इस्तेमाल कर उन्हें अपनी अभिव्यक्ति का विषय बनाता है। तेवरी के संदर्भ में करुणा सम्बन्धी किये गये उक्त विवेचन से तेवरी की रस-प्रक्रिया को इस प्रकार स्पष्ट किया जा सकता है-
1. तेवरी में करुणा का बीज रूप लोक या मानव के उन त्रासद हालात से बनता है, जिनका अनुभव कवि लोक या मानव की शोकाकुल अवस्थाओं, भाव-भंगिमाओं आदि के रूप में करता है।
2. तेवरी में करुणा का बीज रूप कवि की उस वैचारिक प्रक्रिया की देन है, जो लोक की हर प्रकार की रक्षा करना चाहती है।
3. लोक की पीड़ामय, शोकग्रस्त अवस्था में बना, [कवि के मन में] करुणा का बीज रूप, जब कवि द्वारा अभिव्यक्ति का विषय बनता है तो करुणा जो परवर्तित स्वरूप ग्रहण करती है, वह लोकरक्षा के लिये कवि द्वारा अपनायी गई विभिन्न वैचारिक प्रक्रियाओं का अंग बनकर विभिन्न प्रकार के उग्र और प्रचण्ड भावों से लेकर, अन्य भावों में भी विकसित होती हुई ‘आक्रोश’, ‘विरोध’, ‘असंतोष’ ‘विद्रोह’ आदि रूप में आलोकित होती है।
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+रमेशराज, 15/109, ईसानगर, अलीगढ़-202001

Language: Hindi
Tag: लेख
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