Sahityapedia
Sign in
Home
Search
Dashboard
Notifications
Settings
20 Aug 2023 · 5 min read

तेवरी तथाकथित सौन्दर्य की पक्षधर नहीं

+विजयपाल सिंह
————————————
अधिकांश ग़ज़लगोओं का यह कहना है कि परिवर्तन के साथ ग़ज़ल के मिजाज में परिवर्तन आया है, निस्संदेह यह सोचने पर मजबूर करता है कि ग़ज़़ल के मिजाज में क्या और कैसे परिवर्तन आया है? जैसा कि ग़ज़लगो मानते हैं कि अब ग़ज़ल कल्पनाओं के आकाश में उड़ने के बजाय सामाजिक यथार्थ की जमीन पर समाज के साथ कंधे से कंधा मिलाकर सामाजिक विकृतियों, विसंगतियों से जूझ रही है, राजनीतिज्ञों साजिशों का पर्दाफाश कर रही है। अब इसके ईद-गिर्द घुंघरूओं की झंकार, शराब के प्यालों की खनखनाहट के बजाय पत्थरों के टूटने और हथौड़ों की खट-पट का शोर है, अय्याशों की वाहवाही की जगह मालिक की बद्तमीजी और फटकारों की बौछार है। कुछ मिलाकर आज ग़ज़ल सामाजिक हितों और नैतिक मूल्यों के लिए सभ्यता के भेडि़यों और आदमखोरों के खिलाफ संघर्षित है।
इस युद्धरत ग़ज़ल को [जो हिंदी पत्रिाकाओं में देखने को मिल रही है] कुछ लोगों ने हिंदीग़ज़ल कहने का भी प्रयास किया। यहां यह सोचने का विषय है कि चार-छहः हिंदी शब्द डाल देने से यदि कोई रचना हिंदीग़ज़ल हो सकती है [जबकि सच तो यह है कि उर्दू भी हिंदी की एक बोली है] तो भाषायी या बोलियों के आधार पर वह संस्कृत, अरबी, रूसी, अंग्रेजी, तुर्की, मराठी, कन्नड़, भोजपुरी, अवधी या ब्रजभाषा गजल क्यों नहीं हो सकती?
दूसरी तरफ यह भी सोचने का विषय है कि यदि किसी रचना के कथ्य या शिल्प में क्रांतिकारी परिवर्तन दृष्टिगोचर होता है तो वह अपनी मौलिक पहचान खो देती है अथवा नहीं? यदि वह क्रांतिकारी परिवर्तन के साथ अपनी मौलिक पहचान खोती है, अपने पुराने रूप को त्यागकर एकदम नये रूप में प्रस्तुत होती है तो उसे पुराने ही नाम से पुकारा जाना हर प्रकार अनुचित है । ठीक इस तरह जैसे यदि कोई वैश्या वैश्यावृत्ति को त्यागकर अपना घर बसा एक आदर्श पत्नी की भूमिका अदा करती है, लेकिन हम उसे फिर भी ‘वैश्या’ ही सम्बोधित करते हैं ।
क्या इन रूढि़वादी ग़ज़लगोओं को कोठे पर बैठने वाली चम्पाबाई और अंग्रेजों के छक्के छुड़ाने वाली लम्बीबाई में कोई अन्तर नजर नहीं आता? यदि इस सामाजिक बदलाव या सामाजिक क्रांति के पक्षधर तेवर को ‘तेवरी’ नाम से पुकारा या परिभाषित किया जा रहा है तो इसमें बेमानी क्या और क्यों है?
तेवरी पर यह आरोप लगाना कितना हास्यास्पद है कि चाकू छुरी नेता, बलात्कार आदि कठोर शब्दों का प्रयोग रचना की खूबसूरती को नष्ट कर देता है। क्या ऐसे ग़ज़लगो ये बताने का कष्ट करेंगे के दंगों में नेताओं के सांप्रदायिकता भड़काने वाले वक्तव्यों और गुंडों द्वारा चाकू और छुरी के प्रहार से उत्पन्न आदमी की चीत्कार व शरीर से बहती हुई लहू की धार के कारुणिक दृश्यों के बीच कौन-सा सौन्दर्य या खूबसूरती होती है? जिसे वे कौन से सुन्दरतम, कर्णप्रिय सहज ढंगी शब्दों या प्रतीकों के माध्यम से व्यक्त करना चाहेंगे? क्या वे बलात्कार के वीभत्स दृश्यों के बीच गुंडों के शिकंजे में छटपटाती नारी के चेहरे पर फूलों जैसी मुस्कान, कंठ से चीत्कार के बजाय सीत्कार सुन सकेंगे? जब सामाजिक यथार्थ कठोरतम, क्लिष्टतम, शोषित, बलत्कृत और अतिपीडि़त हो चुका है तो उसकी अभिव्यक्ति सहज और पुष्मण्डित कैसे हो सकती है?
विश्व इतिहास साक्षी है कि इतिहास की कीर्तनियां मुद्राओं, प्रशस्तिगानों, चाटुकारी प्रवृत्तियों या प्रेमी-प्रेमिकाओं के रिझाने वाली भंगिमाओं ने न तो कभी सामाजिक क्रांति की पृष्ठभूमि तैयार की है और न कभी कर सकेंगी। साहित्य का असली सौन्दर्य तो रानी लक्ष्मीबाई की तरह तलवार उठाने में ही रहा है, भगतसिंह की तरह संसद में बम फेंककर बहरी सरकार के कान खोलने में रहा है। तथाकथित अहिंसा के पुजारियों को भी उन्नीस सौ बयालीस में ‘करो या मरो’ का नारा देकर अंग्रेजों की हत्याएं करने, बम प्रयोग से लेकर समस्त अस्त्र-शस्त्र प्रयोग करने पर मजबूर होना पड़ा। विश्व की हर क्रांति बल प्रयोग से ही आयी।
यदि ये ग़ज़लगो सामाजिक यथार्थ से कतराकर कोरी काल्पनिकता की फूलों से लदी मादक गंध से युक्त जमीन पर ही टिके रहना चाहते हैं तो कुछ नहीं कहना, वर्ना उन्हें एक न एक दिन दुष्यंत कुमार की इन पंक्तियों की पीड़ा और तनाव से साक्षात्कार करना पड़ेगा-
हो गयी है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए।
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।।
सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं।
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।।
‘जर्जर कश्ती’ का जुलाई-85 अंक, ग़ज़ल प्रतियोगितांक के रूप में प्रकाशित हुआ। इस अंक के निर्णायकों ने ग़ज़ल के संदर्भ में ग़ज़ल के चरित्र या उसके वास्तविक अर्थ-‘प्रेमिका से प्रेमपूर्ण बातचीत’ को ताक पर रखकर जिस तरह ग़ज़ल की सामाजिक संदर्भों में तरफदारी की और प्रस्तुत अंक की पुरस्कृत रचनाओं में सहजता, कर्णप्रियता, खूबसूरती का बखान किया उससे एक बात एकदम स्पष्ट हो जाती है कि ये निर्णायक, साथ ही तथाकथित तेवरीकार और ‘जर्जर कश्ती’ के सम्पादक श्री ज्ञानेन्द्र साज़ दुनिया के उन्ही मुन्सिफों में से एक हैं जो सच का गला घोंटते या काटते हैं-
क्या होगा अंजाम न जाने फिर
एक सख्श ने सच बोला।
उसके लिए दुनिया के मुंसिफ
फिर से खंजर ले आए हैं।।
[गजल प्रतियोगितांक- ‘जर्जर कश्ती’]
क्या ‘जर्जर कश्ती’ के निर्णायक और ये तथाकथित सौन्दर्यवादी भिन्डरवाला की बारूद उगलती स्टेनगनों से आहत या ढेर होती इंसानियत के बीच कोई लालित्यपूर्ण बिम्ब तलाश कर सकेंगे-
है गरम मौसम हवा में गंध बारूद भरी।
संत भी करने लगे संहार के हस्ताक्षर।।
या
अपने घर में खुद लगा दो आग यारो।
घुस गये पूजाघरों में नाग यारो।।
[गजल प्रतियोगितांक- ‘जर्जर कश्ती’]
कहने का अर्थ ये है कि ग़ज़ल की सामाजिक दायित्यों से युक्त तरफदारी करने वाले आज भी अधिकांश ग़ज़लगो या ग़ज़ल के निर्णायक वही लोग हैं जिन्हें न तो सामाजिक चरित्र की पहचान है और न साहित्यिक चरित्र की।
तेवरी उस तथाकथित सौन्दर्य की कभी पक्षधर नहीं रही है जो शारीरिक सौन्दर्य प्रसाधनों में निहित रहता है। बल्कि वह तो शरीर के स्थान पर व्यक्ति के उस मन-मस्तिष्क की पहचान कराती है जो पत्नी और वैश्या, बहिन और प्रेमिका, काॅलगर्ल और मां, पिता और अय्याश, शासक और कुशासक में अन्तर स्पष्ट करता है। साथ ही परिवार, समाज, देश, मानवता के प्रति उस कर्तव्य का बोध कराती है जो व्यक्ति से व्यक्ति को कर्त्तव्यबोध से जोड़ता है। तेवरी ग़ज़ल की तरह लैला-मजनू शीरी-फरिहाद, हीर-रांझा के उन कारनामों की न तो पहले कभी पक्षधर थी और न अब है, जो सिर्फ शारीरिक भोग के लिए सौन्दर्य के मानचित्र बनाती है।

Language: Hindi
169 Views

You may also like these posts

उम्र बीत गई
उम्र बीत गई
Chitra Bisht
मतलबी नहीं हूँ
मतलबी नहीं हूँ
हिमांशु Kulshrestha
क्यों बात करें बीते कल की
क्यों बात करें बीते कल की
Manoj Shrivastava
तितली तुम भी आ जाओ
तितली तुम भी आ जाओ
उमा झा
आभासी दुनिया की मित्रता
आभासी दुनिया की मित्रता
Sudhir srivastava
सामंजस्य
सामंजस्य
Shekhar Deshmukh
वर्तमान समय और प्रेम
वर्तमान समय और प्रेम
पूर्वार्थ
गर्मी और नानी का आम का बाग़
गर्मी और नानी का आम का बाग़
अमित
" दुश्वार "
Dr. Kishan tandon kranti
कर्महीनता
कर्महीनता
Dr.Pratibha Prakash
24/231. *छत्तीसगढ़ी पूर्णिका*
24/231. *छत्तीसगढ़ी पूर्णिका*
Dr.Khedu Bharti
ज़िंदा रहे यह देश
ज़िंदा रहे यह देश
Shekhar Chandra Mitra
"मासूम ज़िंदगी वो किताब है, जिसमें हर पन्ना सच्चाई से लिखा ह
Dr Vivek Pandey
*राम अर्थ है भारत का अब, भारत मतलब राम है (गीत)*
*राम अर्थ है भारत का अब, भारत मतलब राम है (गीत)*
Ravi Prakash
उल्लू नहीं है पब्लिक जो तुम उल्लू बनाते हो, बोल-बोल कर अपना खिल्ली उड़ाते हो।
उल्लू नहीं है पब्लिक जो तुम उल्लू बनाते हो, बोल-बोल कर अपना खिल्ली उड़ाते हो।
Anand Kumar
बदला है
बदला है
इंजी. संजय श्रीवास्तव
दोहा पंचक. . . . शीत
दोहा पंचक. . . . शीत
sushil sarna
शरद पूर्णिमा
शरद पूर्णिमा
Raju Gajbhiye
काश - दीपक नील पदम्
काश - दीपक नील पदम्
दीपक नील पदम् { Deepak Kumar Srivastava "Neel Padam" }
स्कूल की यादें
स्कूल की यादें
Surinder blackpen
देखभाल
देखभाल
Heera S
टपरी पर
टपरी पर
Shweta Soni
हर पीड़ा को सहकर भी लड़के हँसकर रह लेते हैं।
हर पीड़ा को सहकर भी लड़के हँसकर रह लेते हैं।
Abhishek Soni
यह सादगी ये नमी ये मासूमियत कुछ तो है
यह सादगी ये नमी ये मासूमियत कुछ तो है
डॉ. दीपक बवेजा
...
...
*प्रणय*
प्लास्टिक की गुड़िया!
प्लास्टिक की गुड़िया!
कविता झा ‘गीत’
क्रोध...
क्रोध...
ओंकार मिश्र
आवाज मन की
आवाज मन की
Pratibha Pandey
Beautiful & Bountiful
Beautiful & Bountiful
Shyam Sundar Subramanian
घर
घर
Dr. Bharati Varma Bourai
Loading...