‘तेवरी’ टैस्ट-ट्यूब बेबी नहीं + रवीन्द्र कंचन
हिन्दी साहित्य में जब भी कोई नयी विधा जन्म लेती है, बहुत से हाथ उसका गला घोंटने के लिये उठ खड़े होते हैं, अनेक हाथ चेहरे पर तेजाब डालने के लिये तत्पर हो जाते हैं। कुछ हद तक वे उस नवजात शिशु का चेहरा विकृत करने में सफल भी हो जाते हैं, किन्तु पूरी तरह उसके अस्तित्व को नष्ट नहीं कर पाते। थोड़े से ही हाथ उसके पालन-पोषण में लग पाते हैं और कालान्तर में जब वही शिशु चेहरे पर एक विशिष्ट चमक लिये अपने पूरे कद के साथ साहित्यजगत में मुस्कराता हुआ खड़ा हो जाता है तो वे ही हाथ जो कल तक उसका गला घौंटने और उसके अस्तित्व को मिटा डालने के लिये कटिबद्ध थे, फिर उसके सामने नमन की मुद्रा में जुड़ जाते हैं। आज यही स्थिति ‘तेवरी’ की है।
तेवरी के विरोध में बहुत से हाथ उठ खड़े हुए हैं। कुछ इसका स्वरूप बिगाड़ने तथा कुछ इसे ‘ग़ज़ल का विकृत रूप’ घोषित करने में लगे हैं। इसी प्रकार लघुकथा को भी इन विरोधी हाथों ने नकारने का बहुत ही प्रयास किया, किन्तु वे सफल न हो सके। आज भी कुछ विरोधी हाथ छद्मवेश में ‘लघुकथा’ के स्वरूप को बिगाड़ने पर तुले हुए हैं। किन्तु लघुकथा इस खतरे से अब पूरी तरह उबर चुकी है और अपना एक ओजपूर्ण चेहरा लिये हिन्दीमंच पर सीना तानकर खड़ी हो गयी है।
‘तेवरी’ खतरे से पूरी तरह उबर नहीं पाई है, बल्कि खतरा तेवरी के सिर पर अभी भी मँडला रहा है। इसके लिये तेवरी के पोषक हाथों को अभी काफी संघर्ष करना है और मैं यह दावे के साथ कह सकता हूँ कि इस संघर्ष में वे विजयी होंगे और इसके विरोधी कल इसके समक्ष हाथ जोड़ें खड़े मिलेंगे।
‘तेवरी’ की उत्पत्ति युगानुरूप है। समय की माँग के अनुसार ही इसका जन्म हुआ है। यह टैस्टट्यूब बेबी की तरह कृत्रिम गर्भाधान से उत्पन्न अथवा जोड़-तोड़ कर बनाया गया रूप नहीं है बल्कि लघुकथा की तरह पाक साफ वैधानिक एवं प्राकृतिक, स्वभाविक तौर पर उत्पन्न रूप है।