तेवरी के लिए एक अलग शिल्प ईज़ाद करना होगा
+ चेतन दुवे ‘अनिल’
*******************
सुधी विद्वान कबीर से ही हिन्दीग़ज़ल का शुभारम्भ मानते हैं। निराला एवं प्रसाद ने भी ग़ज़लें लिखीं हैं और दुष्यन्त कुमार से काफी पहले से गयाप्रसाद शुक्ल ‘सनेही’, गुलाब खण्डेलवाल और बलवीर सिंह ‘रंग’ की गणना शीर्ष ग़ज़लकारों में की जाने लगी थी। 1975 में दुष्यन्त कृत ‘साए में धूप’ से ग़ज़ल को ‘हिन्दी ग़ज़ल’ की संज्ञा दी जाने लगी। श्री रमेशराज जिस अर्थ में ग़ज़ल को ग़ज़ल मानते हैं [प्रेमिका से बातें करना] तो दुष्यंत की 51 ग़ज़लों में एक भी ग़ज़ल ‘ग़ज़ल’ नहीं ठहरती। रमेशराज वाले मानक में वे सारी ग़ज़ल ‘तेवरी’ मानी जाएँगी। दुष्यन्त की काव्य-भूमि वाली ग़ज़लें आज तक लिखी जा रही हैं और 90 प्रतिशत ग़ज़लें ऐसी ही ग़ज़लें हैं जिन्हें रमेशराज ‘तेवरी’ संज्ञा देकर ‘ग़ज़ल’ से अलग करके देखते हैं |
जहाँ तक मैं जानता हूँ, उसके हिसाब से 15-18 वर्ष पूर्व श्यामानन्द ‘सरस्वती’ और साथी छतारवी [काव्य-गंगा, गीतकार के सम्पादक] ने अपनी पत्रिकाओं में ग़ज़ल को ‘तेवरी’ बताकर साहित्य में हंगामा किया था। शायद उसके बाद ही ‘तेवरीपक्ष’ में रमेशराज ‘तेवरी’ का परचम लहराते हुए दिखे। यदि इन तीनों से पूछा जाये कि आप तीनों में ‘तेवरी’ का जनक कौन है? तो शायद तीनों ही अपनी-अपनी ताल ठोंकते नजर आएँगे और ‘तेवरी’ को ‘तेवरी’ नाम देने वाला कोई चौथा नाम ही सामने आएगा।
अपने बयान में रमेशजी ‘ग़ज़ल’ को ‘तेवरी’ के रूप में प्रस्तुत करते हुए नज़र आते हैं, जिसमें वे इश्किया ग़ज़लों को छोड़कर युगीन बोध, आम आदमी के संघर्ष, शोषण के विरुद्ध आवाज़, भ्रष्टाचार की खिलाफत वाली ग़ज़लों को ‘तेवरी’ नाम देते हैं। क्या रमेशजी को दुष्यन्त, अदम गोंडवी आदि की ग़ज़लों में तेवर नहीं दिखे। ‘तेवर’ का अर्थ है ‘कुपित दृष्टि’। तो क्या प्रेमी-प्रेमिका आपस में कुपित नहीं होते? क्या इश्कि़या ग़ज़लें उक्त आधार पर ‘तेवरी’ नहीं हैं?
दूसरी बात, ‘तेवर’ एक भाव विशेष है, जिसके आधार पर ग़ज़ल को ‘तेवरी’ कहा गया। अर्थात् ‘तेवरी’ विशेष भाव-भंगिमा वाली ग़ज़ल ही है। तेवरी कोई विधा नहीं, जबकि ग़ज़ल काव्य की एक विधा है। मात्र भाव के आधार पर ‘तेवरी’ को एक विधा नहीं माना जा सकता।
हाल ही में डॉ. दरवेश भारती के सम्पादन में प्रकाशित ‘ग़ज़ल के बहाने’ [पत्रिका] की एक-दो को छोड़कर सारी ग़ज़लें तेवर वाली ही हैं। उन्हें न दरवेशजी ने तेवरी कहा और न किसी ग़ज़लकार ने। मेरी दृष्टि में तेवरी और ग़ज़ल के शिल्प में कोई भेद नहीं क्योंकि ग़ज़ल की बहरों, रुक्न, रदीफ, काफिया से अलग करके तेवरी को नहीं देखा जा सकता। क्या ग़ज़ल और तेवरी के लिए अलंकार विधान अलग-अलग है? क्या तेवरी का किसी अलंकार विशेष पर विशेषाधिकार है? अतः मैं नहीं मानता कि एक विशेष भंगिमा के आधार पर तेवरी को ग़ज़ल से अलग करके देखा जाये। अतः तेवरी के लिए एक अलग शिल्प ईज़ाद करना होगा।