तेवरी’ का शिल्प ग़ज़ल का है ‘ + देवकीनन्दन ‘शांत’
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तेवरी के प्रश्न पर जहाँ तक प्रश्न पहचान का है, वह सिर्फ इतना ही है कि ‘तेवरी’ का शिल्प ग़ज़ल का है। इसमें मक़्ता है, शे’र हैं, मतला है। ठीक वैसे ही जैसा कि 56 वर्ष की वय में गोपालदास ‘नीरज’ ने मउफरानीपुर के जलविहार कवि सम्मेलन में एक खूबसूरत ग़ज़ल यह कहकर पढ़ी कि 56 साल का बूढ़ा यह शे’र कह रहा है कि-
आज भी होती हैं जिसके लिये पागल कलियाँ
जाने क्या बात है ‘नीरज’ के गुनगुनाने में।
‘तेवरी’ जो दर्शन बेज़ार साहब अथवा रमेशराज कह रहे हैं, इसका शिल्प पूरा का पूरा वही है- सिर्फ इन ग़ज़लों के तेवर आक्रोश और विरोध के स्वर लिए हैं। अतः आपका आग्रह , जो आपकी दृष्टि में पूर्ण तथा बाजि़व रहा है कि ग़ज़ल जो ‘विरोधरस’ में कही जाए, उसे ‘तेवरी’ कहकर ही पुकारा जाना चाहिए! यह सर्वमान्य कैसे हो?
मसअला इतना है, इस हिसाब से मेरी बहुत-सी ग़ज़लें नहीं, तेवरी हैं। दुष्यन्त की तो 95 प्रतिशत ग़ज़लें इसी तेवर की हैं-यहाँ तक कि आज उर्दू में जिसे जदीद शायरी के नाम से जाना जाता है-उन सब ग़ज़लों के शे’रों में यही तेवरी आम है, लेकिन शायरों अथवा ग़ज़लकारों-कवियों ने कभी आग्रहपूर्वक उसे किसी खास पहचान के दायरे में न बाँधकर उसे सिर्फ ‘ग़ज़ल’ अथवा ‘जदीद शायरी’ का दर्जा दिया है।
मैं भी किसी आग्रह विशेष के पचड़े में न पड़कर अपनी ग़ज़लों को सिर्फ ग़ज़ल कहता हूँ। भले उनके तेवर इंसानियत, शृंगार, विरोध, इन्कलाब, दर्द, छटपटाहट, घुटन, कल्याणकारी भावना अथवा खुशी से भरपूर क्यों न हों। अधिकतर मेरी ग़ज़लें ‘सूफियाना’ लहजे से स्वतः ढल जाती हैं।
मेरी विनम्र अपील श्रेष्ठ तेवरी ग़ज़लकारों से है कि आप ‘तेवरी’ ही कहें, परन्तु शिल्प ग़ज़ल का होने से इसे ‘तेवरी ग़ज़ल’ कहेंगे तो वह सर्व स्वीकार होगा। ‘नूर’ साहब कहा करते थे कि जिस प्रकार ताँबा या पीतल पड़ा-पड़ा दाग़नुमा हो जाता है- कविता की अन्य विधाएँ उसी संक्रमण-काल से गुज़र रही हैं-जबकि ‘ग़ज़ल’ पूजा के बर्तन की तरह रोज़-रोज़ नए प्रयोगों द्वारा समय-समय पर माँजी जाती रही है। अतः ग़ज़ल-शिल्प पूजा के उस बर्तन की तरह नित नयी चमक लिए निखरता चला जा रहा है, जिसने ‘ग़ज़ल’ को इतनी लोकप्रियता प्रदान की है। अतः किसी आग्रह में पहचान के लिए लड़ना उचित न होगा।