Sahityapedia
Sign in
Home
Search
Dashboard
Notifications
Settings
19 Feb 2017 · 8 min read

तेवरी का आस्वादन +रमेशराज

‘‘काव्य वह रमणीय एवं सार्थक शब्द-रचना है, जिसमें पाठक, श्रोता अथवा दर्शक के मन को रमाने की शक्ति हो। ऐसी रचना रस-भाव युक्त हो सकती है, अलंकार-युक्त हो सकती है, गुणयुक्त हो सकती है, वकोक्ति-युक्त हो सकती है, ध्वनियुक्त हो सकती है, बिम्ब-विधायक हो सकती है। इन काव्यांगों में से किसी एक से अथवा अनेक के संयोग से रमणीय काव्य-सृष्टि की जा सकती है। इनमें से कोई भी काव्यांग, कविता के लिये अनिवार्य नहीं है, काव्य के अन्तः तत्त्व या अंग भी खोजे जा सकते हैं… श्रोता अथवा पाठक का मन उसमें स्वयं अभिभूत होकर रमता नहीं है, प्रयोजन विशेष की उपलब्धि के उद्देश्य से श्रोता या पाठक अपने मन को उक्त प्रकार के साहित्य के अध्ययन की ओर प्रेरित करता है। प्रयोजन विशेष की उपलब्धि की आकांक्षा, जितनी तीव्र होगी, अध्येता का मन उतनी ही सहजता और प्रगाढ़ता से उस साहित्य के अध्ययन/अनुशीलन में संलग्न हो सकेगा… स्वतः आकृष्ट होकर किसी रमणीय रचना में निमग्न होना अथवा रुचिपूर्वक उसमें तल्लीन होना अथवा उसके सुनने, पढ़ने देखने आदि में मन का रमना यह सब आस्वादन के ही पर्याय हैं… काव्य का आस्वादन करने वाला व्यक्ति आस्वादक होता है… कवि ने जिन परिस्थितियों/ परम्पराओं और संस्कारों से बंधकर काव्य की रचना की होती है, सहृदय जब तक उनके साथ अपना सामंजस्य स्थापित नहीं कर लेता, तब तक वह काव्यरचना उसके लिये आस्वाद्य नहीं हो सकती। वर्ग संघर्ष को साहित्य का प्राणी मानने वाला मार्क्सवादी पाठक बिहारी के काव्य का आस्वादन नहीं कर सकता।’’
काव्य के आस्वादन के सम्बन्ध में डॉ. राकेश गुप्त ने अपने शोध प्रबन्ध ‘दा साइकलोजीकल स्टडीज आफ रस’ में व्यक्त किये उपरोक्त विचारों से काव्य के आस्वादन के सम्बन्ध में जो तथ्य उभर कर सामने आते हैं, उन्हें इस प्रकार विश्लेषित किया जा सकता है कि पाठक, श्रोता या दर्शक के आस्वादन का विषय मात्र रस-अलंकार आदि ही नहीं बनते, बल्कि आस्वाद्य सामग्री वह विचारधाराएं भी हो सकती हैं, जिनके साथ औचित्य/अनौचित्य का प्रश्न जुड़ा रहता है। इस प्रकार उन गुणों का भी आस्वादन, काव्य की रमणीयता को निर्धारित करता है, या कर सकता है जो कि काव्य की अभिव्यक्ति के माध्यम से कवि के प्रयोजन विशेष को स्पष्ट करते हैं। इस संदर्भ में ध्यान देने योग्य बात यह भी है कि कवि का प्रयोजन मात्र आनंदोपलब्धि ही नहीं होता, बल्कि ऐसी अनुपयुक्त दलीलों से परे-यह प्रयोजन समाज या लोक-सापेक्ष होने के कारण लोक या समाज की सत्योन्मुखी रागात्मक चेतना का विकास करता है तथा लोक या समाज की इस रागात्मक चेतना की सुरक्षा के उपाय भी सुझाता है। अतः हम कह सकते हैं कि काव्य की रमणीयता का प्रश्न बहुत कुछ कवि के उन सामाजिक संस्कारों से जुड़ा है, जिनके द्वारा कवि, समाज को एक नयी जीवनदृष्टि प्रदान करता है। रस, ध्वनि, बिम्ब, वक्रोक्ति, अलंकार आदि के माध्यम से दी गयी जीवनदृष्टि ही पाठक, श्रोता या दर्शक के आस्वादन की विषय बनती है।
काव्य के आस्वादन के सम्बन्ध में भी प्रमुख रूप से दो तथ्य उभरकर सामने आते हैं-
1. पाठक श्रोता या दर्शक जिस रमणीय काव्यसामग्री की आस्वादन करता है, वह रमणीय सामग्री मात्र रस, ध्वनि, अलंकार, वक्रोक्ति आदि द्वारा ही निर्धारित नहीं होती। इसके निर्धारक अन्य तत्त्व-काव्य में वर्णित पात्रों की चारित्रिक विशेषताएं, उनकी वैचारिक अवधारणाएं आदि भी हो सकते हैं। वस्तुतः रस, ध्वनि, अलंकार, वक्रोक्ति आदि तो पात्रों की चारित्रिक विशेषताओं/वैचारिक अवधारणाओं, संस्कारों आदि को उद्बोधित कराने में माध्यम या एक साधनमात्र होते हैं। अतः रमणीयता का प्रश्न का सीधे-सीधे काव्य की उस वैचारिक प्रक्रिया से जुड़ा हुआ है, जिसके माध्यम से उसका कथ्य स्पष्ट होता है। कवि जिन परिस्थितियों, परम्पराओं, संस्कारों से बंधकर काव्य की रचना करता है, उसके साथ कवि की एक विशेष प्रयोजन दृष्टि भी होती है जिसके अनुसार वह भावी समाज की परिकल्पना करता है। कवि की इस प्रकार की विशेष काव्य प्रयोजन दृष्टि एक तरफ जहां लोक या समाज की सत्योन्मुखी रागात्मक चेतना का विकास करती है, वहीं इस प्रकार की रागात्मक चेतना को किस प्रकार सुरक्षित रखा जाये, इस प्रश्न का भी उत्तर सुझाती है। अतः काव्य के आस्वादन का सम्बन्ध सीधे-सीधे पाठक और श्रोता के साथ, रागात्मक चेतना के विस्तार एवं स्थापना के साथ जुड़ा हुआ है। काव्य के आस्वादन की प्रक्रिया को कोरे आनंद या कोरे रसात्मकबोध तक सीमित करने वाले आचार्यों को डॉ. राकेश गुप्त का यह तर्क कि ‘‘ प्रयोजन विशेष उपलब्धि के उद्देश्य से श्रोता या पाठक अपने मन को साहित्य के अध्ययन की ओर प्रेरित करता है’’, चाहे जितना अतार्किक लगे लेकिन यह सच्चाई है कि एक आस्वादक को रमणीय सामग्री वही लगेगी, जिससे उसका आत्मीय सम्बन्ध स्थापित हो सकेगा अर्थात् उसके संस्कार को तुष्टि मिल सकेगी। यहां ध्यान देने योग्य बात यह है कि तुष्टि का सम्बन्ध सीधे-सीधे पाठक या श्रोता की विचारधाराओं की तुष्टि से होता है। तात्पर्य यह कि पाठक, श्रोता या दर्शक जिस प्रकार की सामग्री का आस्वादन करता है, वह सामग्री जब तक उसकी मान्यताओं, अवधारणाओं, आस्थाओं से साम्य स्थापित नहीं कर लेती, तब तक उस सामग्री के प्रति वह न रमता है और न रमाया जा सकता है। ईमानदारी, मानवता और राष्ट्रप्रेम को अपना आदर्श मानकर चलने वाले पाठक या श्रोता की रागात्मक चेतना की तुष्टि ऐसे किसी काव्य से नहीं हो सकती जो अराष्ट्रीय, अलगाववादी, अराजक और साम्प्रदायिक हो। ठीक इसी प्रकार साम्प्रदायिक दायरों में ही अपनी रागात्मक चेतना को संकीर्ण या सीमित रखने वाले पाठक श्रोता या दर्शक को ऐसे काव्य में रुचि जागृत होगी जो उसकी साम्प्रदायिक विचारधाराओं को तुष्ट कर सके।
इस तथ्य को कथित आनन्दवादी या रसवादी स्वीकारें या न स्वीकारें कि कविता का उद्देश्य या प्रयोजन मात्र पाठक या श्रोता को रस-सिक्त ही करना नहीं होता, बल्कि इससे आगे बढ़कर कविता पाठक या श्रोता का आस्वादनोपरांत नये सिरे से संस्कारित भी करती है, उसे नयी जीवनदृष्टि प्रदान करती है, उसमें सत्योन्मुखी संवेदनशीलता, रागात्मक चेतना का विकास भी करती है। अतः यह कहना अनुचित न होगा, काव्य के आस्वादन का मूल्यांकन काव्य में वर्णित संस्कारों, वैचारिक अवधारणाओं आदि से कटकर नहीं किया जा सकता।
जहां तक तेवरी के आस्वादन का प्रश्न है तो तेवरी में अभिव्यक्त आस्वाद्य सामग्री प्रमुख रूप से वह विचारधारा है, जो सत्योन्मुखी और मानवतावादी है, जिसे विभिन्न प्रकार के बिम्बों, प्रतीकों, मिथकों, उपमानों आदि के माध्यम से प्रस्तुत किया जाता है।
अतः कहना अनुचित न होगा कि तेवरी में प्रयुक्त बिम्ब, प्रतीक, मिथक, उपमान आदि अपने आस्वाद्य रूप में पाठक या श्रोता को जिस प्रकार की ऊर्जा से सिक्त करते हैं, वह ऊर्जा पाठक या श्रोता को काव्य में वर्णित वैचारिक अवधारणाओं से प्राप्त होती है। तेवरी की वैचारिक प्रक्रिया बिम्ब, प्रतीक, मिथक, उपमान आदि किस प्रकार आस्वादन का विषय बनते हैं, इसे निम्न प्रकार से स्पष्ट किया जा सकता है-
1.बिम्बों का आस्वादन-
बिम्ब हमारी मानसिक एवम् शारीरिक चेतन अवस्था की एक ऐसी चित्रात्मक प्रस्तुति होते हैं जिसके बिना कविता रसनीयता, रमणीयता और संम्प्रेषणीयता के संकट की शिकार हो जाती है। लोक या प्राणी की शारीरिक एवं मानसिक दोनों प्रकार की दशाओं को प्रस्तुत करने के लिये लाये गये बिम्ब पाठक या श्रोता के लिये आस्वाद्य तभी हो सकते हैं जबकि उनकी प्रस्तुति पाठक या श्रोता के जीवन, उसकी त्रासदियों, विडम्बनाओं भयावहताओं या रति-विरति के निकट ही की हो अर्थात् पाठक या श्रोता का भोगा हुआ यथार्थ जब काव्य में बिम्ब के माध्यम से प्रस्तुत होगा, तभी वह उसके लिये आस्वादन का विषय बन पायेगा।
तेवरी की बिम्ब प्रस्तुति वर्तमान जीवन की त्रासदियों की एक ऐसी सत्योन्मुखी झांकी है जिसके अन्तर्गत वर्तमान व्यवस्था द्वारा सताये गये पात्रों को बिलबिलाते, चीखते, आक्रोशित होते, छटपटाते लगातार महसूस किया जा सकता है। सामाजिक रूढि़यों, धार्मिक अन्धविश्वासों, दहेज-लालचियों की शिकार नारी की बेबसी या पीड़ा की बिम्बात्मकता तेवरी जब अपने कारुणिक दृश्य उपस्थित करती है तो वह अपने आस्वाद्य रूप में पाठक या श्रोता को द्रवित किये बिना नहीं छोड़ती-
‘‘कुलटा और कलंकिन निर्लज बता-बता कर राख किया
हमने हर दिन अबलाओं को जला-जला कर राख किया
हम क्या जाने कितनी चीखी कितनी रोयी होंगी वो
दहकी हुयी चिता पर जिनको रोज बिठाकर राख किया।
-दर्शन बेजार
तेवरीकार का तेवरी में बिम्बों को प्रस्तुत करने का प्रयोजन मात्र समाज की घिनौनी तस्वीर को ही उजागर करना नहीं होता बल्कि इससे आगे पाठक या श्रोता को ऊर्जस्व कर चिन्तन के उस बिन्दु तक पहुंचाना होता है जहां वह हर प्रकार की अनैतिकता के खिलाफ अपने आप को तैयार कर सके। अतः यह कहना भी अनुचित न होगा कि तेवरी में उठाये गये बिम्ब तेवरीकार के उस प्रयोजन की प्रस्तुति होते है जिसकी वैचारिक प्रक्रिया सत्योन्मुखी और लोक-सापेक्ष होती है।
2. प्रतीकों, मिथकों आदि का आस्वादन
प्रतीक, मिथक आदि की सत्ता काव्य की वह ध्वन्यात्मक सत्ता होती है, जिसमें छुपे गूढ़ अर्थ की गहराइयों तक जब तक पाठक या श्रोता नहीं पहुंच जाता, तब तक प्रतीक या मिथक आस्वाद्य नहीं हो सकते। अतः आवश्यक यह है कि सर्वप्रथम पाठक या श्रोता प्रतीक, मिथक आदि के प्रस्तुत स्वरूप को समझे, तत्पश्चात इस प्रस्तुति के माध्यम से जिस अप्रस्तुत तथ्य को प्रस्तुत किया जा रहा है, उस तक पहुंचने के लिये प्रतीकों, मिथकों में अन्तर्निहित व्यंजनात्मकता को अपनी अर्थ-प्रक्रिया का अंग बनाये। प्रतीकों/मिथकों आदि की इस प्रकार की अर्थमीमांसा, एक निश्चित वैचारिक प्रक्रिया के अन्तर्गत जब रसमीमांसा में तब्दील होगी, तब पाठक या श्रोता उक्त प्रतीकों/मिथकों के प्रति मानसिक धरातल पर उर्जस्व हो उठेगा। पाठक या श्रोता की यह उर्जस्व अवस्था ही सही अर्थों में आस्वादन की अवस्था होगी।
तेवरी में गरीब, असहाय, शोषित, पीडि़त वर्ग के लिये प्रस्तुत किये गये ‘होरीराम’, सुकरात, द्रौपदी, मरियम जैसे मिथक तथा मेमना, मछली, टहनी, नदी, पेड़, जैसे प्रतीकों का आस्वादन पाठक या श्रोता को एक तरफ जहां करुणा से सिक्त करेगा, वहीं इस निर्धन, दलित वर्ग का शोषण करने वाले वर्ग के लिये प्रस्तुत किये गये ‘चंगेज खां, हलाकू, खुमैनी’ जैसे मिथक तथा ‘शेर, सांप, आदमखोर, गिद्ध, चील, बाज जैसे प्रतीकों का आस्वादन पाठक या श्रोता को [ आताताई, साम्राज्यावादी वर्ग के प्रति ] आक्रोश, असंतोष, विरोध और विद्रोह में उर्जस्व कर डालेगा।
करुणा, आक्रोश, असंतोष और विद्रोह तक पहुंचने की यह आस्वादन प्रक्रिया उसी पाठक या श्रोता की वैचारिक प्रक्रिया द्वारा आस्वाद्य होगी, जिसके संस्कार मानवीय और सत्योन्मुखी संवदेनशीलता से युक्त होंगे। इस कारण तेवरी की रमणीयता, सौन्दर्यात्मकता या रसात्मकता के प्रश्न का हल सीधे-सीधे उस रागात्मक चेतना के साथ जुड़ा हुआ है, जिसकी वैचारिक मूल्यवत्ता मानव से मानव के बीच किसी प्रकार की दीवार खड़ी नहीं करती। वस्तुतः तेवरी के आस्वादन की समस्या का समाधान पाठक या श्रोता को इन बिन्दुओं पर आकर मिलेगा-
1. तेवरी में प्रतीकों, मिथकों, बिम्बों आदि के माध्यम से वर्णित काव्य-मूल्यों या सामाजिक मूल्यों को पाठक या श्रोता अपनी आस्थाओं, वैचारिक अवधारणाओं आदि के साथ कितना आत्मसात् कर पाता है।
2. तेवरी की बिम्ब-सम्बन्धी, प्रतीकात्मक और मिथकीय व्यवस्था से पाठन या श्रवण के समय वह किस प्रकार के अर्थ ग्रहण करता है और किस दशा में उर्जस्व होता है।
3. तेवरी की भाषा शैली, छन्दात्मकता, लयात्मकता पाठक या श्रोता के काव्य सम्बन्धी शास्त्रीय संस्कारों को किस स्तर पर और किस प्रकार प्रभवित करती है।
4.तेवरी के पठन-पाठन या श्रवण के समय पाठक या श्रोता के किसी प्रयोजन विशेष का समाधान मिलता है अथवा नहीं? यदि मिलता है तो कितनी तीव्रता के साथ?
————————————————————————
+रमेशराज, 15/109, ईसानगर, अलीगढ़-

Language: Hindi
Tag: लेख
555 Views

You may also like these posts

मैं विपदा----
मैं विपदा----
उमा झा
ज़ख़्म ही देकर जाते हो।
ज़ख़्म ही देकर जाते हो।
Taj Mohammad
उड़ान
उड़ान
राजीव नामदेव 'राना लिधौरी'
चलते चलते
चलते चलते
ruby kumari
सुबह की तलब की चाय तुम हो।
सुबह की तलब की चाय तुम हो।
Rj Anand Prajapati
वेयरहाउस में सड़ गया
वेयरहाउस में सड़ गया
Dhirendra Singh
*बेफिक्री का दौर वह ,कहाँ पिता के बाद (कुंडलिया)*
*बेफिक्री का दौर वह ,कहाँ पिता के बाद (कुंडलिया)*
Ravi Prakash
खेल जगत का सूर्य
खेल जगत का सूर्य
आकाश महेशपुरी
भक्ति रस की हाला का पान कराने वाली कृति मधुशाला हाला प्याला।
भक्ति रस की हाला का पान कराने वाली कृति मधुशाला हाला प्याला।
श्रीकृष्ण शुक्ल
हक़ीक़त में
हक़ीक़त में
Dr fauzia Naseem shad
वृद्धावस्था
वृद्धावस्था
Mrs PUSHPA SHARMA {पुष्पा शर्मा अपराजिता}
नेतृत्व
नेतृत्व
Sanjay ' शून्य'
पंख कटे पांखी
पंख कटे पांखी
Suryakant Dwivedi
" सीमा "
Dr. Kishan tandon kranti
नेता
नेता
OM PRAKASH MEENA
आज रातभर जागकर एहसास हुआ कि
आज रातभर जागकर एहसास हुआ कि
शिव प्रताप लोधी
काश!
काश!
Dr. Chandresh Kumar Chhatlani (डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी)
प्रदूषण
प्रदूषण
डॉ प्रवीण कुमार श्रीवास्तव, प्रेम
प्रबल वेग बरसात का,
प्रबल वेग बरसात का,
sushil sarna
असोक विजयदसमी
असोक विजयदसमी
Mahender Singh
Zomclub mang đến một không gian giải trí cá cược đẳng cấp vớ
Zomclub mang đến một không gian giải trí cá cược đẳng cấp vớ
zomclubicu
#एक_स्तुति
#एक_स्तुति
*प्रणय*
मुक़द्दर में लिखे जख्म कभी भी नही सूखते
मुक़द्दर में लिखे जख्म कभी भी नही सूखते
Dr Manju Saini
गांव की भोर
गांव की भोर
Mukesh Kumar Rishi Verma
बजाओ धुन बस सुने हम....
बजाओ धुन बस सुने हम....
Neeraj Agarwal
3083.*पूर्णिका*
3083.*पूर्णिका*
Dr.Khedu Bharti
आओ ऐसा दीप जलाएं...🪔
आओ ऐसा दीप जलाएं...🪔
सत्यम प्रकाश 'ऋतुपर्ण'
पति की विवशता
पति की विवशता
Sagar Yadav Zakhmi
ज़िंदगी कभी बहार तो कभी ख़ार लगती है……परवेज़
ज़िंदगी कभी बहार तो कभी ख़ार लगती है……परवेज़
parvez khan
बड़े बुजुर्गो की सेवा करने से जो शुभ आशीर्वाद प्राप्त होता ह
बड़े बुजुर्गो की सेवा करने से जो शुभ आशीर्वाद प्राप्त होता ह
Shashi kala vyas
Loading...