तेवरीः नारों की सार्थकता + सुरेश त्रस्त
नारा अपनेआप में कोई बुरी चीज नहीं है। अगर बुरा या अच्छा है तो उसका प्रयोग या उसका उद्देश्य। मार्क्स ने बहुत पहले एक नारा दिया था कि ‘मजदूरो एक हो जाओ’। इस नारे के तहत एक सार्थक कान्ति की गयी। सुभाषचन्द्र बोस ने नारा दिया-‘तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा’। फलस्वरूप भारत के पाँवों में पड़ी गुलामी की बेडियाँ भड़भड़ा कर टूटने लगीं। ठीक इसी तरह ‘विदेशी वस्त्रों का बहिष्कार करो ’, ‘स्वतंत्रता हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है, ‘अंग्रेजो भारत छोड़ो’ ‘करो या मरो’ आदि नारों ने भारतीय जनता के मन में एक ऐसी कान्ति फूँकी कि अंग्रेजी साम्राज्य जलकर राख हो गया।
दुर्भाग्य! हम सब भारत में पुनः गुलामों को तरह जीवन व्यतीत कर रहे हैं और आज स्थिति यह हो गयी है कि सम्भवतः अंग्रेजों के शासनकाल में इतना मानवीय शोषण नहीं हुआ होगा, जितना कि आज। कारण स्पष्ट है कि एक तरफ जहाँ भारतीय संदर्भों में सुभाषचन्द्र बोस, भगतसिंह, लोकमान्य तिलक आदि के नारों के पीछे एक स्वस्थ, शोषणविहीन समाज की परिकल्पना थी, वहीं ‘अंग्रेजों भारत छोड़ो’ ‘विदेशी वस्त्रों का बहिष्कार करो’ आदि नारों के पीछे सत्तालोलुप नेताओं की ‘कुर्सी-लित्सा’ भी छुपी हुई थी। दुर्भाग्यवश आजादी कुर्सी-लोलुपों के हाथ लगी और आजादी का सपना आजादी मिलने के बाद भी सपना होकर ही रह गया।
जब कभी नारे के पीछे एक सुउद्देश्य छुपा होता है तो वह नारा न होकर एक आव्हान हो जाता है। दूसरी तरफ जब नारे के पीछे कोई षड्यंत्र-स्वार्थ छुपा होता है तो वह नारा न होकर लफ्फाजी, एक भ्रम, एक शब्दजाल बन जाता है, जिससे अधिकान्शतः सामाजिक अहित ही दृष्टिगोचर होते हैं। उदाहरणस्वरूप ‘हिन्दी-चीनी भाई-भाई’ ‘इन्दिरा-लाओ, देश बचाओ’ ,‘गरीबी हटाओ, ‘देश खतरे में है’ आदि ऐसे ही नारे हैं या थे, जिनके तहत राजनीति के बाजीगरों ने जनता के साथ एक धोखे भरा खेल खेला, परिणामतः ये नारे एक आव्हान न होकर कोरी लफ्फाजी बन गये। लालबहादुर शास्त्री का नारा ‘जय जवान, जय किसान’ अपनी सार्थकता के कारण नारा न होकर एक आव्हान हो गया।
कहने का अर्थ यह है कि सामाजिक क्रान्ति या परिवर्तन में नारा अपना एक अहं स्थान रखता है। या ये कहा जाये कि हर एक क्रान्ति किसी न किसी नारे के तहत हुई है तो कोई अतिशियोक्ति नहीं होगी, क्योंकि हर नारे के पीछे एक ऐसी सामाजिक तिलमिलाहट छुपी हुई होती है जो व्यक्ति-विशेष की न होकर पूरे समाज की हो जाती है।
यदि हम तेवरी पर दृष्टिपात करें तो ऐसा महसूस होता है कि हम कविता नहीं बल्कि कोई नारा पढ़ रहे हों। लेकिन यहाँ हमें यह अवश्य जान लेना होगा कि क्या ये नारे मात्र शब्दजा हैं या फिर इस खूनी व्यवस्था को तहस-नहस करने के लिये जनता के बीच दिये गये आवाह्न हैं। यदि इन नारों की सार्थकता सामने आती है तो क्या हम इन्हें ‘मात्र नारा’ कह कर ठीक उसी तरह नकार दें जैसे कांग्रेस-सरकार द्वारा बनाये गये ‘बीस-सूत्रीय कार्यक्रम’। बीस-सूत्र बुरे नहीं हैं। बुरा है तो सिर्फ आम जनता को इन कार्यकर्मों के तहत धोखे में रखने का षड्यंत्र। कुर्सी से चिपके रहने का स्वार्थ। ‘बीस सूत्राीय’ लुभावने नारों के पीछे एक घृणित उद्देश्य छुपा होने के कारण यह कार्यक्रम मात्र एक शब्दजाल बनकर रह गया। लेकिन इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि बीस सूत्रीय नारे बुरे हैं।
ठीक इसी तरह यदि तेवरी का प्रयोग नारों के रूप में किया जा रहा है तो इसमें आखिर बुराई क्या है? इतिहास साक्षी है कि पूरे विश्व में सामाजिक-बदलाव नारों के द्वारा आया है? नारों का प्रयोग अभी से नहीं युग-युग से होता चला आ रहा है। साहित्य नारों से न तो कभी अछूता रहा है और न रहेगा। यदि नारा कोई बुरी चीज है तो हमें दिनकर, मैथिलीशरण गुप्त, धूमिल और समकालीन काव्य की सार्थकता पर भी प्रश्न-चिन्ह टाँकने पड़ेंगे। क्योंकि इस साहित्य में हमें कई जगह नारेबाजी-सी दिखलायी पड़ेगी। ‘वीर तुम बढ़ चलो’ से लेकर ‘लूट रही सरकार, साथी जाग रे’ ‘आओ लड़ाई में आओ कवि’ ‘मांगो सुविधा साधन लोगो’ तक सिर्फ नारे ही नारे दृष्टिगोचर होंगे।
नारे की सार्थकता सिर्फ इसी बात में निहित है कि उससे सामाजिक उपयोग बढ़ता है या दुरुपयोग। इस संदर्भ में तेवरी के पीछे न तो कुर्सी-लिप्सा है न कोई स्वार्थ और न कोई षड्यंत्र। तेवरी समकालीन विकृतियों, विसंगतियों में फँसे आदमी को उससे बाहर निकालकर एक ऐसी जमीन पर खड़ा कर देना चाहती है, जहाँ दो वक्त को रोटी मुहैया हो सके। आदमी दो पल चैन की साँस ले सके। उदाहरणस्वरूप-
1. जड़ व्यवस्था को हिलाओ दोस्तो क्रोध की मुद्रा बनाओ दोस्तो!
2. जिसमें सो जाता हो भूखा हर मेहनतकश
उस निजाम के गाल छरो तुम आज राजजी!
3. क्यों जोड़े तुम हाथ खड़े हो
छोड़ो यह बँधुआपन लोगो!
4. रोजी-रोटी दे हमें या तो ये सरकार
वर्ना हम हो जायेंगे गुस्सैले-खूंख्वार।
तेवरों में आम आदमी की पीड़ा का एक ऐसा एहसास है, जो नारे का रूप लेता हुआ स्वस्थ समाज की परिकल्पना को साकार करने के लिये एक आवाह्न का रूप ग्रहण कर लेता है, और कहीं न कहीं मन की जड़ता को ब्लेड की तरह छीलते हुये हमें क्रान्ति के लिये प्रेरित करता है। इसलिये तेवरी का महत्व नारेबाजी या महज लफ्फाजी कहकर नाकारना इस बात पर सोचने के लिये जरूर मजबूर करेगा कि यदि तेवरी’ लफ्फाजी है तो सही और सार्थक कविता कौन-सी है?