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11 Jan 2023 · 12 min read

तेवरी काव्यधारा : उत्पत्ति,विकास और वैचारिकता *डॉ. चन्दन कुमारी

—————————————-
हिंदी साहित्य की काव्यधारा तेवरी शिथिलता में स्पंदन का स्वतःस्फूर्त संचार है | जमीनी हकीकत को बयां करने वाली इस कविता का मूल तत्व है ‘तेवर’ और इसमें गुंफित ओज का जनक है असंतोषजन्य ‘आक्रोश’ | यह आक्रोश, विनाश का नहीं वरन कचोटते मन की क्षुब्धता मिश्रित विरोध का द्योतक है | आहत क्रौंच पक्षी के जोड़े की असहयनीय वेदनायुक्त क्षुब्ध मनके भीतर छिपे आक्रोश वाले तेवर को महसूस करते हुए ‘विरोधरस’ के प्रतिष्ठापक रमेशराज ‘आक्रोश’ को विरोध का स्थायी भाव मानते हैं | उनके अनुसार “आक्रोश मनुष्य के मन की वह संवेगात्मक अवस्था है, जिसका रूप प्रतिवेद्नात्मक होता है | प्रतिवेदना अर्थात किसी भी घटना से असहमति जिसका प्रधान लक्षण है |
.. अत्याचारी का कुछ न बिगाड पाने की विवशता आक्रोश को जन्म देती है | अपमान, उपहास, तिरस्कार की मार से तिलमिलाता मनुष्य भीतर ही भीतर घुटता है, क्षुब्ध होता है | मन ही मन उस व्यक्ति को कोसता है, श्राप देता है, जिसने उसके मन को चोट पहुंचाई है |”1
आक्रोश आहत मन की पूंजी है | तेवरीकार मन की चोट को भाँपते हैं और उसकी कसक को महसूस भी करते हैं| वे देश-दुनिया की अंतर्तम सच्चाई को शब्दबद्ध कर आभासी दुनिया और दुनियावी यथार्थ के जल और दूध वाले ऐक्य का भेद अपनी तेवरियों के माध्यम से स्पष्ट करने की सफल कोशिश रहे हैं |
यह स्पष्टीकरण सिर्फ भेदों के आख्यान निर्माण से संबद्ध नहीं है वरन यह वैचारिक क्रांति से उद्भूत होने वाले व्यापक बदलाव की आशा से जुडा हुआ है | डॉ. प्रेमचंद जैन का आत्मकथ्य, “तेवरीकार तेवरी मानसिकता से इस देश को जगाने में सफल हों ..”2 इस तथ्य की पुष्टि कर रहा है |
एक व्यापक बदलाव ला सकने की क्षमता रखने वाली मानसिकता ‘तेवरी’ का अस्त्र-शस्त्र ‘शब्द’ है | कलम-क्रांति के सूत्रधार ‘विचार’ और हथियार ‘शब्द’ सबके चिर-परिचित हैं |
दर्शन बेजार के तेवरी संग्रह की समीक्षा करते हुए डॉ. रवीन्द्र भ्रमर लिखते हैं, “तेवरी के शब्द-संधान को देखकर ऐसा प्रतीत होने लगा है की वर्तमान सामाजिक विसंगतियों और सामाजिक विद्रुपताओं में आग लगाने के लिए युवा-आक्रोश की तीसरी आँख खुल गयी है |”3 तेवरी का शब्द संधान यहाँ द्रष्टव्य है :
“बहरी सत्ता, अंधी सत्ता /जागो, आओ, दीवाली है” (विनीता निर्झर, मचान पृ.20)

“कदम-कदम पर हैं बाधाएं लेकिन हम आजाद तो हैं
आगजनी, चोरी, हत्याएं लेकिन हम आजाद तो हैं |”(सुधाकर संगीत, मचान, पृ.65)

पसीना हलाल करो
काल महाकाल करो ।
तेल बना रक्त जले
हड्डियाँ मशाल करो ।
संगीन के सामने
खुर्पी व कुदाल करो ।
कालिमा को चीर दो
दिशा-दिशा लाल करो ।
सबसे पहले अब हल
भूख का सवाल करो” ।
(ऋषभदेव शर्मा, तेवरी)

“यहाँ गिरहकट सुंदर-सुंदर हाट सजाये बैठे हैं |
पूछेगा ‘बेजार’ न कोई तेरे सच के सिक्के को,
यहाँ झूठ के सिक्के ही बाजार दबाये बैठे हैं |”
(दर्शन बेजार,ये जंजीरें कब टूटेंगी )

“हाथ जोड़कर महाजनों के पास खड़ा है होरीराम |
ऋण की अपने मन में लेकर आस खड़ा है होरीराम |”
(सुरेश त्रस्त, कबीर जिंदा है )

“‘गोबर’ शोषण सहते-सहते
नक्सलवादी बना लेखनी ||
महाजनों को देता गाली
अबके होरी मिला लेखनी ||
अब टूटे हर इक सन्नाटा
ऐसी बातें उठा लेखनी ||”
(रमेशराज, अभी जुबां कटी नहीं )
आज से नहीं , सृष्टि के आरंभ से अनाचार और अत्याचार के विरुद्ध खड़े हुए हर मनुष्य की भीतरी शक्ति की संवाहिका के रूप में अधिष्ठित हैं ये सकारात्मक ‘विचार और इनके संवाहक शब्द’ ; तभी तो क्रांति होती है और परिवर्तन आता है, सुधार होता है, जागृति आती है, सुशासन आता है । यह बड़ी शिद्दत से चाहा हुआ सुशासन, सबको भौंचक्का करते हुए न जाने कब और कैसे दुःस्वप्न में परिणत हो जाता है , इस आशय की कुछ तेवरियाँ यहाँ द्रष्टव्य हैं :
“राष्ट्र के निर्माण के चर्चे किये जिसने बहुत
रात घिरते ही अचानक विष उगलती वह जुबान ||
साथ मिलकर जो लड़े दो सौ बरस अंग्रेज से
वो लगे लड़ने परस्पर खींचकर कसकर कमान ||”
(बेजार, दर्शन, खतरे की भी आहट सुन )

“बौनी जनता,ऊँचीकुर्सी,
प्रतिनिधियों का कहना है
न्यायों को कठमुल्लाओं का
बंधक बनकर रहना है
वोटों की दूकान न उजड़े,
चाहे देश भले उजड़े
अंधी आँधी में चुनाव की ,
हर संसद को बहना है”
(ऋषभदेव शर्मा, धूप ने कविता लिखी है )

“आजादी के नाम पे बहेलियों के हाथ में
पंछियों की देख-भाल, जै कन्हैयालाल की नीति है कमाल की|”
(रमेशराज,जै कन्हैयालाल की)
तेवरी उस उम्मीद का नाम है जो यह चाहती है कि यह भौंचक होनेवाली स्थिति समाज में उत्पन्न न हो | यह लोक की जागृत चेतना है और सभी की जागृति की प्रबल पक्षधर भी | जागृत अवस्था में किया गया कार्य पश्चाताप का हेतु नहीं बनता है | यह सजगता का अभाव ही है कि हर पाँच साल में मिलने वाले एक दिन के अधिकार के उपयोग में भी सावधानी नहीं बरती जाती है जिससे आगे पांच सालों तक मुँह बाए रहने की स्वअर्जित बेबसी होती है | एक पल की माया और पांच साल की फकीरी, देखें :
“पदचाप लोकतंत्र की बस एक पल सुने
फिर पाँच साल तक तके मुंह बाय फकीरा |” (ऋषभदेव शर्मा, तरकश )

“ये बाघों का देश है, जन-जन मृग का रूप
अब तो चौकस रहना सीखो, किसी हिरण की मौत न हो
संसद तक भेजो उसे जो जाने जन पीर
नेता के लालच के चलते, और वतन की मौत न हो |”
(रमेशराज, घड़ा पाप का भर रहा)

“लोग ढूंढा किए देश अख़बार में,
देश करता फिरा हॉकरी हॉकरी |
अब निराला नहीं औ’ न इकबाल हैं, मंच पर रह गई जोकरी जोकरी |” (ब्रजपाल सिंह शौरमी)
विद्वानों के अनुसार अपने साहित्यिक परिवेश में तेवरीकार कबीर, निराला, मुक्तिबोध, धूमिल और नागार्जुन के अधिक निकट जान पड़ते हैं | वास्तव में उनकी सबसे अधिक निकटता इंसानियत और शहादत से है | आजादी की जंग और अपने देश एवं देशवासियों के लिए देशप्रेमियों के जुनून से काफी प्रभावित रहे तेवरीकार, तभी तेवरी काव्यांदोलन के कई काव्य संग्रह क्रांतिकारियों (राम प्रसाद बिस्मिल, भगतसिंह, अशफाक़उल्ला खां इत्यादि) को ही समर्पित हैं | उन शहीदों की विरासत है यह आजाद हवा, आजाद धरती और आजाद आसमान जिसमें हम अपने अरमानों को तो पूरी तवज्जो दिए हुए हैं पर क्या कहीं उनकी याद और अहमियत भी बाकी है ? हमारी बदली फितरत की तस्वीर कुछ ऐसी है :
आजादी क्या मिल सकती थी सिर्फ गरजते नारों से –
इसके लिए लक्ष्मीबाई जूझी थी तलवारों से ||
क्या अतीत को समझोगे तुम वर्तमान के गायक हो-
तुम तो अभिनंदन के भूखे हो मौजूदा सरकारों से ||
(दर्शनबेजार, 09-10-2017, फेसबुक)

पत्रकार का हो गया नेता से गठजोड़
दोनों मिलकर देश की बांहें रहे मरोड़ | (रमेशराज, 12-01-2017, फेसबुक)
जहाँ इस मिलन की उपेक्षा कर कलम अपनी धार और दिशा स्वयं तय करती है वहां अनचाही घटनाएँ सहजता से घट जाती हैं | तेवरीकार रमेशराज के अनुसार तेवरी का ओज “अँधेरे के बीच मजदूर के पास एक लालटेन सा है |”4
काव्य विधा तेवरी की कविताओं की विशेषताओं को कथ्य और भाषा के स्तर पर बाँट कर प्रो. दिलीप सिंह ने उसका सरल एवं हृदयग्राही सार प्रस्तुत किया है | उनके अनुसार, “ कथ्य के स्तर पर यह कहा गया है कि असंतोषजन्य आक्रोश इसका मुख्य भाव है, रचनात्मक क्रांति इसका लक्ष्य है, व्यवस्था के प्रति आक्रोश इसकी भावभूमि है, दुरभिसंधियों का पर्दाफाश करना इसकी मंशा है और जागृति प्राप्तव्य है |”5
दर्शन बेजार के तीसरे काव्य संग्रह ‘ये जंजीरें कब टूटेंगी’ की समीक्षा करते हुए डॉ. भगवती प्रसाद शर्मा तेवरी की ओर संकेत करते हुए लिखते हैं, “तेवरी तलवार है, मुक्ति के लिए शमशीर है, पीड़ा को अंगार में बदलने वाली तासीर है | यह ज्वालामुखी की तरह फूटती है और बन्धनमुक्त कराने के लिए क्रांतिपथ बन जाती है |”6
अंग्रेजों से टटके आजाद हुए भारत में कहाँ से आईं दुरभिसंधियां ? जिनके निवारणार्थ तेवरी का साहित्य जगत में प्राकट्य हुआ ! अंग्रेजो के दिए घाव की पीड़ा से भारतमाता अभी पूरी तरह बाहर भी न आई थीं कि अपने सपूतों ने उन्हें खंजर चुभाने आरंभ कर दिए | उजड़ा हुआ संसार अभी पूरी तरह बस भी न पाया था कि पुनः उजाड़ने की कवायद प्रारंभ हो गई | तेवरीकारों ने अपने सृजन कर्म के माध्यम से जहाँ ऐतिहासिक साक्ष्यों के साथ इन तथ्यों को स्पष्ट किया है वहीँ उनकी कविताएँ चीखती हुई सुनाती हैं तब से अब तक की भयावह दुर्दशाओं को और करना चाहती हैं बदलाव वक्त के ढर्रे में | पर चीखें सुन कानों और आँखों को बंद करने वाली प्रजाति पर सब बेअसर ! संभवतः असर को समय की दरकार है !
“एक अभागिन चीरहरण पर बिलख-बिलख कर चिल्लाई ,
आँखें नीची किये उधर से चले गये मुंह फेरे लोग”
(दर्शन बेजार, ये जंजीरें कब टूटेंगी)

“केवल अंगूठे नहीं मांगे आज द्रोण भी
भील को करे हलाल, जै कन्हैयालाल की, नीति है कमाल की।।”
(रमेशराज, जै कन्हैयालाल की)

“दीप से छत जल रही है
आस्था हर छल रही है
गिरगिटी काया पहन कर
रोशनी खुद छल रही है
आँख में आहत सपन की
मौन पीड़ा पलर ही है”
(12-06-2011,ऋषभदेवशर्मा, tevari.blogspot.com,)

“जमाखोरों कुशल चाहो अगर तो ध्यान से सुन लो
निकालो अन्न निर्धन का जहाँ तुमने छुपाया है |”
(कबीर जिंदा है, देवराज)
स्वयं भूखे रहकर औरों का भूख मिटाने की रीति निभाने वाली इस धरती पर अपनों ने अपनों को महज अपनी स्वार्थपूर्ति हेतु अन्न का मोहताज बना रखा है | अंग्रेजों ने भूखा रखा, बात पल्ले पड़ती है, पर आजाद भारत के आजाद निवासियों ने आजाद निवासियों का जीना ऐसा दूभर क्यों कर रखा है ? क्या स्वतंत्रता सेनानियों ने अपने घर में अपनों का कैद पाने और जुल्म सहने के लिए अपना बलिदान दिया था ? पहले जो शोषक था हम उसे पहचानते थे अबकी बार शोषक मुखौटाधारी है, मायावी है | वह अपनी मीठी बातों में उलझा लेने की कला का महारथी है | आजादी के कुछ सालों बाद से ही समाज की बदलती परिस्थितियों एवं सामाजिकों के बदलते रंग-ढंग के साथ तेवरी काव्यधारा की पृष्ठभूमि तैयार होने लगी थी | सन 1981 में यहविधिवत प्रकाश में आई | तेवरी काव्यांदोलन के आरंभिक समय में तेवरी काव्यधारा के अनेक सक्रिय रचनाकारों ने बढ़-चढ़ कर अपना योगदान दिया था, उनमे से कुछ के नाम यहाँ उल्लिखित हैं – पवन कुमार पवन, विनीता निर्झर, ऋचा अग्रवाल, राजश्री रंजिता, राजेश महरोत्रा, गिरिमोहन गुरु, दिनेश अंदाज, ब्रजपाल सिंह शौरमी, हरिराम चमचा, तुलसी नीलकंठ, रघुनाथ प्यासा,श्याम बिहारी श्यामल, विक्रम सोनी, जगदीश श्रीवास्तव,गजेंद्र बेबस, विजयपाल सिंह, अनिल कुमार अनल, अरुण लहरी, गिरीश गौरव, योगेंद्र शर्मा, सुरेश त्रस्त, शिव कुमार थदानी इत्यादि | आज भी देश के कोने-कोने में धारदार तेवरियाँ अवश्य लिखी जा रहीं हैं जो छिटपुट होने से सर्वसुलभ नहीं हैं | आवश्कता है सुप्रतिष्ठित तेवरी काव्य विधा को हिंदी साहित्येतिहास में अंकित करने की ताकि हिंदी साहित्य की यह महत्वपूर्ण निधि भविष्य को उसके भटकाव और अलगाव के क्षणों में दिशा देने के लिए सर्वप्राप्य रहे |
साहित्य की समृद्धि और सामाजिकों के मन का परिष्करण करती तेवरियां आज भी समय की जरुरत हैं | वर्तमान समय में तेवरी को अविराम गति प्रदान करनेवालों में उल्लेखनीय नाम हैं : दर्शन बेजार, रमेशराज और ऋषभदेव शर्मा | फेसबुक और ब्लॉगों (हिंदी तेवरी साहित्य, तेवरी, तेवरी गजल विवाद) पर भी इनकी तेवरियाँ उपलब्ध हैं |
तेवरी के घोषणापत्र के लेखक एवं तेवरीकार डॉ. देवराज सहित ये तेवरीकार त्रय सम्मिलित रूप में वर्तमान परिप्रेक्ष्य में तेवरी काव्यधारा के चार मजबूत आधार स्तंभ हैं |इनमें रमेशराज के चर्चित तेवरी संग्रह हैं – “सिस्टम में बदलाव ला, घड़ा पाप का भर रहा, धन का मद गदगद करे, रावण कुल के लोग, ककड़ी के चोरों को फांसी, दे लंका में आग, होगा वक्त दबंग, आग जरुरी, मोहन भोग खलों को, आग कैसे लगी, बाजों के पंख कतर रसिया, जय कन्हैयालाल की, ऊधौ कहियो जाय” इत्यादि | इनके समस्त तेवरी संग्रहों का संकलन भी “रमेशराज के चर्चित तेवरी संग्रह” नाम से सन 2015 में सार्थक सृजन प्रकाशन से प्रकाशित हुआ है | इन्होने लंबी तेवरी और द्विपदी के साथ ही हाइकु में भी तेवरियों को लिखा है | इनके द्वारा संपादित तेवरी संग्रह हैं : अभी जुबां कटी नहीं(1982), कबीर जिंदा है (1983), इतिहास घायल है (1984) इत्यादि |
दर्शन बेजार के चर्चित तेवरी संग्रह हैं – एक प्रहार लगातार (1985), देश खंडित न हो जाए (1989), ये जंजीरें कब टूटेंगी (2010), खतरे की भी आहट सुन (प्रकाशनाधीन) इत्यादि |
ऋषभदेव शर्मा के चर्चित तेवरी संग्रह हैं –तेवरी (1982), तरकश (1996), धूप ने कविता लिखी है (2014) इत्यादि|
दर्शन बेजार ने अपने आलेख “संख्या–बल लोकतंत्र का मूल आधार” में तेवरी विधा के आविर्भाव की घटना को उजागर किया है | उनके अनुसार, “लगभग सत्ताईस-अट्ठाईस वर्ष पूर्व जनपद मुजफ्फरनगर के क़स्बा ‘खतौली’ में आयोजित एक साहित्यिक विचार-गोष्ठी में श्री ऋषभदेव शर्मा ‘देवराज’ तथा डॉ. देवराज ने जनसापेक्ष कविता जो कथित गजल-शिल्प में लिखी जा रही थी , को ‘तेवरी’ नाम देकर एक नई विधा को जन्म दिया |”7
पुरुषोत्तम दास टंडन हिंदी भवन, मेरठ में 11 जनवरी, 1981 को “ऋषभदेव शर्मा ने “नए कलम-युद्ध का उद्घोष” शीर्षक एक पर्चा प्रस्तुत किया जिसमें नई धारदार अभिव्यक्ति वाले रचनाकर्म की आवश्यकता को प्रतिपादित किया गया और ऐसी रचनाओं के लिए ‘तेवरी’ नाम प्रस्तुत किया गया |”8
तेवरी काव्यांदोलन के प्रवर्तक ऋषभदेव शर्मा के प्रथम तेवरी संग्रह ‘तेवरी (देवराज, ऋषभ : 1982)’ के प्रकाशन के साथ ही 11 जनवरी 1982 को तेवरी काव्यांदोलन की आधिकारिक घोषणा कर दी गई | उत्साही तेवरीकारों के साथ ही देश के तमाम पत्र-पत्रिकाओं ने इस काव्यधारा से संबंधित आलेखों और रचनाओं को प्रकाशित करने में कोई कोताही नहीं बरती | इनमें से कुछ मुख्य पत्र-पत्रिकाओं के नाम हैं – “तेवरीपक्ष, सम्यक, जर्जर कश्ती, कुंदनशील, कल्पांत, हस्तांकन, दैनिक पंजाब केसरी, साप्ताहिक हिंदुस्तान, युवाचक्र, शिवनेत्र, संवाद, मंथन, उन्नयन, सर्वप्रिय, सहकारी युग, सारिका, अंतर्ज्वाला इत्यादि |
“तेवरी पक्ष” पत्रिका के संपादक रमेशराज आज भी इसका अनियतकालीन संपादन कर रहे हैं | शीघ्र ही इसे तेवरी पक्ष त्रैमासिक पत्रिका के रूप में इंटरनेट (issue.com) पर उपलब्ध कराने की योजना को कार्यरूप देने में संपादक महोदय जुटे हुए हैं |
एक ओर तेवरी काव्यधारा के अनुकूल पक्ष उसे गति प्रदान कर रहे थे तो वहीं दूसरी ओर प्रतिकूल पक्ष की सक्रियता से विकास-मार्ग में अवरोध उत्पन्न हो रहे थे | एक तरफ इनकी जन सापेक्षता कटघरे में थी और दूसरी तरफ इनकी तुकांत वाली शैली में कुछ बुद्धिजीवियों को गजल की खुशबू आ रही थी | जनवादी और प्रगतिशील खेमे के विद्वानों का तर्क था कि हमारी रचनाएँ भी जन सापेक्ष ही हैं फिर भला आप हमसे अलग कैसे हुए !अपने आलेखों के माध्यम से विद्वानों ने तेवरी पर होने वाले समस्त प्रहारों का खंडन किया है जिसमें से कुछ यहाँ द्रष्टव्य है –
तेवरी पर गजल के आक्षेप के संदर्भ में दर्शन बेजार लिखते हैं, “माना कि आज आम आदमी प्रणय के लिए नहीं, रोटी के लिए अधिक छटपटा रहा है , साहित्यकार भी उसे रोटी की चाहत को शब्दबद्ध कर रहा है, किन्तु उस रचना में गजल का आवश्यक प्राणतत्व ‘प्रेम’ ही नहीं है तो वह गजल कैसे हुई ?”9
यहाँ तेवरीकार का आशय प्रेम के उस विशेष पक्ष से है जो सामान्यतः गजल में मुखरित होता है | तेवरी में प्रेम तत्व अपने गहन, सकारात्मक और बृहत्तर परिप्रेक्ष्य में स्वीकृत है | इस संदर्भ में रमेशराज का विचार भी उल्लेखनीय है, “तेवरी अर्थात ऐसे ‘तेवर वाली’ भाव-भंगिमा जो प्यार के संसार पर प्रहार करनेवालों के विरोध में मानवीय चेतना को अग्नि-धर्म निभाने को प्रेरित करती है |”10
प्रो ऋषभदेव शर्मा के अनुसार तेवरी की विशिष्टता यह है कि यह शिल्प मुक्ति का आंदोलन हैं | यहाँ गीत और गजल परस्पर अपने-अपने शिल्प से मुक्त हैं | “तेवरी का शिल्प बड़ी सीमा तक गीत का शिल्प भी है, केवल गजल का ही नहीं | गजल की बहुत सारी शर्तों को स्वीकार नहीं करता | गजल की सबसे बड़ी शर्त है कि गजल में एकान्विति नहीं होती | गीत की सबसे बड़ी शर्त है कि उसमें एकान्विति होती है | तेवरी की शर्त है कि पहले तेवर से अंतिम तेवर तक, एक भाव क्रमशः उद्दीप्त होता चलता है और अंतिम तेवर तक आते-आते वह पूरी तरह से पूरी रचना का जो एकान्वित प्रभाव पड़ना चाहिए उसे निष्पन्न करता है | वस्तुतः ‘तेवरी’ गीत और गजल दोनों के शिल्प को फ्यूज करके नया शिल्प बनाने का प्रयास था | इसमें हम सफल भी हुए |”11
इनके अनुसार तेवरीकार ‘प्रकाश प्रहरी’ हैं | कृत्रिम उजाले में चुँधियाई आँखों को सच्चाई की असलियत दिखाती हैं तेवरियाँ।
जैसे डिजिटलाइजेसन और अमीरीकरण के बीच गरीबों, अशिक्षितों और शिक्षित बेरोजगारों की भरमार | गगनचुम्बी अट्टालिकाओं से पटे पड़े इस देश में न जाने इसके कितने बाशिंदे जेठ की तपन और पौष की ठिठुरन आशियाने के बिना सहने को विवश हैं ! रोज बड़े-बड़े भंडारे होते हैं पर जलते पेट जलते ही रहते हैं ! जलती पेट वालों की लाशें भी लावारिस-सी कहीं पड़ी रहतीं हैं! न जाने कितनी योजनाओं का हर रोज कार्यान्वयन होता है, पर गरीबों का चेहरा मुरझाया-सा ही रहता है | इन योजनाओं के नाम पर खर्ची जाने वाली अथाह राशि क्या सीधे लाभार्थियों तक पहुँचती हैं या बीच में ही कहीं डकार ली जाती हैं ? वृद्धों की अवमानना, आस्था की छाँव में होता मान-हनन, कार्यस्थल पर पद प्रतिष्ठित सक्षम स्त्री की ओट में जबरन चलता पुरुष हुक्म और लिंगभेद की गृह-राजनीतिसहित सारी विद्रूपताओं और मिली-भगत की सत्यता की बखिया उधेड़ती तेवरी संवेदना के धरातल पर समाज की सर्जरी चाहती है। पर यह साध्य तभी सधेगा जब हर एक की आँख खुलेगी और नसों में लहू उबलेगा | इसमें शब्द की महती भूमिका को स्पष्ट करतीं हैं तेवरी संग्रह “धूप ने कविता लिखी है” की निम्नोद्धृत पंक्तियाँ :
‘जब नसों में पीढ़ियों की हिम समाता है
शब्द ऐसे ही समय तो काम आता है |’

संदर्भ सूची :
1. रमेशराज, 11-07-2016,विरोध रस के कवि दर्शन बेजार, hinditewari-29.blogspot.in
2. गुप्ता, डॉ. एस एन (संपादक) मंथन -1, पृ.6
3. ‘भ्रमर’, डॉ. रविन्द्र, 10-07-2016, तेवरी युवा आक्रोश की तीसरी आँख, hinditewari29.blogspot.in
4. रमेशराज, जै कन्हैयालाल की,(2015) अलीगढ़ : सार्थक सृजन प्रकाशन, भूमिका
5. सिंह, डॉ. विजेंद्र प्रताप. ऋषभदेव शर्मा का कवि कर्म(2015), नजीबाबाद : परिलेख प्रकाशन, पृ.122
6. शर्मा, डॉ. भगवती प्रसाद,11-07-2016,कवि अपने युग, समाज और परिवेश की देन,hinditewari-29.blogspot.in
7. बेजार, दर्शन, 13-07-2016, संख्या –बल लोकतंत्र का मूल आधार,hinditewari-29.blogspot.in
8. शर्मा, डॉ.ऋषभदेव, हिंदी कविता : आठवाँ नवां दशक, 1994, खतौली : तेवरी प्रकाशन, पृ. 150
9. बेजार,दर्शन,13-07-2016, गजलियत के बिना गजल कैसी, hinditewari-29.blogspot.in
10. रमेशराज, 22-09-2015, तेवरी इसलिए तेवरी है,kavyasagar.com/tevari-par-lekh-by-ramesh-raj/
11. सिंह, डॉ. विजेंद्र प्रताप. ऋषभदेव शर्मा का कवि कर्म(2015), नजीबाबाद : परिलेख प्रकाशन, पृ.122

Language: Hindi
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