*तेरी मेरी कहानी*
लेखक डॉ अरूण कुमार शास्त्री पूर्व निदेशक आयुष दिल्ली
विषय उधेड़बुन
विधा कविता स्वच्छंद
शीर्षक मति की गति
मानव जीवन की गति रहती सदा उधेड़बुन में है ।
चिंता में डूबा हुआ पूरा व्यक्तित्व इसका ध्यातव्य है।
पैदा होते ही लगा इसे भूख का रोग ।
माता पिता के आसरे गुजरा इसका लड़कपन सुयोग ।
फिर आई युवावस्था घेरे रहती रोजी रोटी कमाने की व्यवस्था।
शिक्षा लौकिक संस्कृति देती न कोई सुदृढ़ अवस्था।
उधेड़बुन होती शुरू मस्तिष्क खिन्न हो जाता है।
रोटी कपड़ा और मकान संग चार का पेट जुड़ जाता है।
कोसता रहता समाज को जिस पर कोई बस नहीं।
अपने सामर्थ्य से अधिक इसे किसी और पर भरोसा नहीं।
सोच – सोच कर ये बौड़म नशे में डूब जाता है।
उधेड़बुन में पहले से भी ज्यादा उलझ जाता है।
सौभाग्य प्रारब्ध अदृश्य होता है ईश्वर क्या सच में कुछ करता है?
मानव मन ये सोच – सोच कर भाई आधा पागल हो जाता है।
मेरी तो चलती नहीं , बड़ा हुआ तो जरूर लेकिन कोई सुनता नहीं।
शिक्षा पद से कोई लेना देना नहीं, व्यवहार कुशल राजनीतिज्ञ होना जरूरी।
ये निकाले आपको पीछे हो चाहे सैंकड़ों झमेले।
जिंदगी में कोई मुकाम बना कर चलोगे तो फिर उधेड़बुन उतनी न होगी ।
कंटक रहित न सही जीवन पर अधिकांश प्रभाव ही रहेगी।
सलाह है मुफ़्त की बात है ये काम की , यूं जिंदगी का क्या ये तो चलती रहेगी?
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