तू फिर से याद आने लगी मुझको।।
फिर से मौसम बेइमानी पे उतर आया
आलमारी से डायरी निकालनी पड़ी मुझको
अंधेरी रातें फिरसे सताने लगी हैं
तू फिर से याद आने लगी मुझको।।
मैंने सोचा कि, चलो कुछ काम करते हैं
अधूरी जिन्दगी अब उसके नाम करते हैं
मुकद्दर में मेरे वो था ही नहीं शायद
लकीरों में उसका नाम किसी ने लिखा ही नहीं शायद।
मुझे आता ही नहीं फरेब की दुनिया बसाना
वो मुझसे मांग रही थी सितारों का आशियाना
उसकी रूमानी थोड़ा पसंद आने लगी थी मुझको
तब तक तो वो छोड़ कर जाने लगी थी मुझको।।
क्या लिखूं, क्या सोचूं, क्या कहूं
कुछ समझ नहीं आता है मुझको
देखना तो पूरी दुनिया चाहता हूं मैं
उसके सिवा और कुछ नज़र नहीं आता मुझको
उसका नूऱ, उसकी हया, उसकी मासूमियत
बहुत परेशान करती है मुझको
मैं परेशान हूं बस इक बात से
उसकी वो हैवानियत नजर क्यूं नहीं आती है मुझको।।
अश्क फिर आंखों से निकलने लगे
मुझे फिर सिगरेट जलानी पड़ रही है
तू फिर याद आने लगी मुझको।
तू फिर याद आने लगी मुझको।।
सारा शहर जल चुका है
मैं राख सा कहीं पड़ा हूं
ये क्या? तू फिर बुलाने लगी मुझको
तू फिर से याद आने लगी मुझको
तू फिर से याद आने लगी मुझको
~ विवेक शाश्वत