तुष्टि
तुष्टि
लक्ष्य यदि, जान लिया,
लेकर संकल्प दृढ़,
चल पड़े कर्तव्य पथ पर।
देह पर हैं लोम जितने,
हों, कठिन व्यवधान उतने।
आंधियां आयें,प्रलय हो,
विश्व सारा तिमिरमय हो,
काल का नर्तन मचा हो,
टूटते नक्षत्र भी हों ।
चुक रही हो शक्ति तन की
और मन की ।
हो गहन संघर्ष पथ में,
थक चुके मन अश्व रथ में,
तोड़ती उम्मीद दम हो,
जीत की आशाएं कम हों,
किंतु फिर भी
देख कर फिर….
ठूंठ से कोंपल उगी हो,
उत्साह उम्मीदें भरी हो,
चूमकर रवि रश्मियां वह,
त्वरित,उद्धत उठ खड़ी हो
और उसकी
अक्षुण्य यह जिजीविषा ही
जगत को संदेश है….
*न, हारने का,
शुष्क मरु से भी,
सुधा-रस खींचने का।
फिर खड़े होकर ,
जगत को जीतने का*।
और निज संकल्प की,
आपूर्ति ही,
तुष्टि देती है,हृदय को, आत्मा को ।
इंदु पाराशर