तुम हो एक आवाज़
तुम हो एक आवाज़
कोई अक्स नहीं
रहती हो बस गूंजती
वो सुगंध हो
जो है हर कैद से परे
बस एक सांस भर में
मेरे अंतर तक हो समाती
छलिया भी हो
छलती हो जब साथ सांस के
बाहर निकल हो जाती
मुलायम हो
जब बारिश की फुहार सी कोमल
कपोल को चूमती हो
कभी गरम उड़ती रेत सी हो लगती
कभी पेड़ की छावं सी शीतल
जो रूठती हो कभी तो
मरुस्थल सी तुम हो जाती
जैसी भी हो “ज़िन्दगी
तुम सुगंध हो मेरी
हर भी कैद से परे
अतुल “कृष्ण”