तुम सोचते क्या हो Brijpal
जहां इंसान को लगता है उसकी बुराई हो रही है या उसका मजाक बनाया जा रहा है, हालांकि ऐसा नहीं हो रहा होता है अपितु उसे बस लगता है, तब उसके अंदर का ज्वार फूटता है वो बैचैन हो उठता है, भला-बुरा सब कहने लगता है या सोचने लगता है, ये जानते हुवे कि बात नकारात्मक वाली है, जब कभी सकारात्मक बातें होती है, जब उसे लगता है उसकी तारीफ़ हो रही तब वो खुशी के मारे घमंड में संलग्न हो जाता है, जिस किसी ने ऐसी विषम परिस्थिति में खुद को सामान्य रख लिया वो महान है। उसकी महानता इसी बात में है कि वो सच में सामान्य है, इसके लिए कोई किताब की ज़रूरत नहीं, किसी मोटिवेशन की ज़रूरत नहीं, किसी दिव्य ज्ञान या कोई गुरु की आवश्यकता नही, स्वप्रेरणता ही उसे सही गलत करवाता है, अंतिम बंध यही कि तुम क्या सोचते हो।