तुम पढ़ते होगे चिठ्ठियाँ मेरी
मैं सोचता था
तुम पढ़ते होगे चिठ्ठियाँ मेरी
पर तुमने तो कभी,
खोली ही नहीं पाती मेरी
तब तुम कैसे देते थे
मेरे पत्रों का जवाब
बिलकुल वैसे ही,
जैसी अपेक्षा मैं करता था।
शायद तुम्हारी-मेरी दृष्टि की,
हदों से बाहर कोई अनजान
निरा खामोश निरा आकार
तुम्हारे मेरे स्वार्थहीन
संबन्ध पर निगाह रखता है
विच्छेदों के विरुद्ध।
तुम जानते हो
यहाँ हरेक को
कीमत चुकानी है
मिट्टी की पानी की
हवा की धूप छांव बारिश की
प्रेम की नफरत की
अपनत्व की बैर की
लोभ लालच अहं की
त्याग उपेक्षा बैराग की।
यहाँ हर वस्तु बिकाऊ है
मिट्टी भी कीचड़ भी
जमीन भी आसमान भी
खामोशी भी जुबान भी
चैन भी बेचैन भी
जीवन भी मौत भी
अस्थि भी चर्म भी
लहू भी आंसू भी
और हर वस्तु के
खरीददार भी हैं लुटेरे भी
क़द्रदान भी हैं बलात्कारी भी
योद्धा भी हैं आतंकी भी।
-✍श्रीधर.