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7 Aug 2024 · 1 min read

तुम्हें सोचना है जो सोचो

तुम्हें सोचना है जो सोचो
फ़र्क नहीं अब पड़ता है
रहीं न अब तुम कुछ भी मेरी
हृदय–प्रहर एक जड़ता है

सिखला के तुम प्रेम की भाषा
फेंका तुमने चौरस–पाशा
मनु सी शब्दपाश जो बाँधा
नित नवीन सिर लेती काँधा

तुम्हें खोजना है तो खोजो
मुझसे अच्छा मिलता है
हुईं जुदा अब राहें मेरी
आगे नव–मादकता है

चंद्र–ताल में पदम के पौधे
हरे–हरे उर उगते हैं
शंकित दीन–हीन मन तेरे
कमल जो कलुषित खिलते हैं

तुम्हें बेंचना है तन बेचो
रक्तहीन सुंदरता है
प्रेम को मोल में तोल रही हो
दुर्बल ये चंचलता है

सत्व–प्रणय हर कोई न समझे
पंच–तत्व संग प्रेम है उपजे
नेह–पुष्प काँटों में उलझे
प्रेम–पहेली सब न सुलझे

तुम्हें खोजना उत्तर खोजो
प्रश्न यहां जो उठता है
राग–विराग का छेड़ रही हो
हिय में साज़ न बजता है

प्रेम सुई विश्वास है धागा
जोगी चादर बुने अभागा
गैर समर्पण अर्पण जोड़ा
छवि का अपने दर्पण तोड़ा

कोरी चादर कारी कर दी
जोगी प्रीत को खारी कर दी
रगड़–रगड़ साबुन तुम भींचो
छल का रंग न मिटता है

उसे तो धोना जीवन भर है
पर कलंक कब धुलता है…!?

–कुंवर सर्वेंद्र विक्रम सिंह✍️
*यह मेरी स्वरचित रचना है
*©️®️सर्वाधिकार सुरक्षित

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