तीन तेरह
लघुकथा
तीन तेरह
*********
भावनात्मक रिश्तों से जुड़ी मुँहबोली बहन के आग्रह पर उसके घर तक जाना पड़ा, जिससे चंद दिनों पहले अल्पावधि का आमना सामना हुआ था। हालांकि बातें पहले भी होती रहीं।
बात कुछ असामान्य तो नहीं है, परंतु अजूबा जरुर लगती है। हालांकि पहली मुलाकात में ही उसने छोटी बहन की तरह जो सम्मान संग स्नेह दिया, वो आल्हादित करने वाला था। ऐसे में उसकी खुशी को उपेक्षित कर अपनी ही नज़रों में गिरने की बात मैं सोच भी नहीं सकता था।
लगभग तीन दिनों में उसने कम से कम तेरह बार मेरे पैर छुए। ये उसका स्नेह रहा, मगर मुझे शर्मिंदगी महसूस होने लगी। क्योंकि हमारे यहां बहन बेटियों के पैर छुए जाते हैं। मगर इधर एकदम उलट है।
खैर शायद उसके संस्कार में ही ऐसा शामिल होगा। मुझे उस गर्व भी हो रहा था और अपनी आदत के अनुसार गुस्सा भी।पर वो जाने किस मिट्टी की बनी है कि लाख मना करने के बाद भी मान नहीं रही थी।
जिसे सम्मान देने के लिए मुझे उसके पैर छूने को विवश होना पड़ा।जिसका उसने प्रतिरोध किया। शायद उसे मेरे बड़ा भाई होने का बोध था। जो उसकी नाराजगी और अधिकारों से मुझे महसूस हो रहा था । मगर मुझे लग रहा था छोटी होकर भी उसका स्थान बहुत ऊंचा हो गया है।
मैं सोच नहीं पा रहा हूं कि भावनात्मक रिश्तों की गाँठों के इतने आत्मीय और मोहक, सुखद होने का रहस्य आखिर क्या है?
सुधीर श्रीवास्तव
गोण्डा, उत्तर प्रदेश
८११५२८५९२१
© मौलिक, स्वरचित