तीन कुण्डलिया छंद
(1)
सच को मैं जो थामता,उतने हों वो दूर.
अहंकार में ख़ुद रमें,हमें कहें मगरूर.
हमें कहें मगरूर,चूर नफ़रत में रहते.
स्वयं साधते स्वार्थ,स्वार्थी हमको कहते.
कह सतीश कविराय,जाये ज्यों बिल्ली हज़ को.
सौ-सौ चूहे खाय,धता बतलाकर सच को.
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(2)
समझें ख़ुद को सब बड़ा,अरु गैरों को नीच.
धवल वसन धारण करें,सरस उछालें कीच.
सरस उछालें कीच,बचें वे ख़ुद फिर कैसे.
भागें बगलें दाब,सभा से जैसे-तैसे.
कह सतीश कविराय,नहीं हम उन से उलझें.
शुभचिंतक-सा मीत,जो हमको हरदम समझें.
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(3)
चाहूँ रखना आपसे,बन्धु मधुर सम्बन्ध.
भले किया हो ना कभी,इसके प्रति अनुबन्ध.
इसके प्रति अनुबन्ध,बन्धुवर रखकर देखें.
दिल में भरा जो द्वेष,उसे बस बाहर फेंकें.
कह सतीश कविराय,स्वयं-सा दिखना चाहूँ.
सरस मधुर सम्बन्ध,आपसे रखना चाहूँ.
*सतीश तिवारी ‘सरस’,नरसिंहपुर (म.प्र.)