तिलचट्टे
वातावरण में सुबह की ठण्डक और नमी अभी कुछ शेष थी, इसलिए धूप की तपन काबिल-ए-बर्दाश्त थी। लेबर चौक पर फंसी गाड़ियों की हॉर्न की आवाज़े। फैक्ट्रियों की तरफ़ बढ़ते मज़दूरों के समूह।
सामने हरी बत्ती होने के बावज़ूद, चलती गाड़ियों के मध्य से लोगों के निकलने की कोशिशें। ऐसा प्रतीत हो रहा है—मानो, अकेले पृथ्वी को छोड़, हर चीज़ घूम रही है। सब कुछ भागता जा रहा है! इस बात में कोई फ़र्क़ नही, वस्तु सजीव है या निर्जीव! हरी से लाल होती बत्ती हो! या इस्पात को गलाकर बने लोहे के निर्जीव वाहन! हर चीज़ सजीव हो उठी है! इसके विपरीत यंत्रवत दिशा-निर्देश पाए लोग किसी मशीनी रोबोट की तरह, समय पर पहुँचने की जुगत में उलटे-सीधे हथकण्डे अपनाते दीख रहे हैं।
लेवर चौक पर सुबह के समय लोगों की भीड़भाड़ और वाहनों के जाम का दृश्य आम है। बल्कि यूँ कहिये, यह शहरीजीवन की दिनोंदिन होती जा रही दुर्गति का अटूट हिस्सा है। जो यहाँ से प्रतिदिन गुज़रते हैं, वह इसके अभ्यस्त हो चले हैं। यक़ीनन जो पहली बार या काफ़ी समय बाद यहाँ से गुज़र रहे हैं, उन्हें यह सब देखना अजीब लग सकता हैं और विचलित कर सकता है।
“फंस गए न बच्चू!” कार के भीतर ड्राइव कर रहे शख़्स से उसके बग़ल में बैठे व्यक्ति से कहा, “मैंने पहले ही कहा था, फोर्टीज़ हॉस्पिटल वाले रूट से ले चलो, मगर जनाब के कान में जूं तक न रैंगी। अब फंस गए न लोगों की भीड़ में।”
“ये लोगों की भीड़ कहाँ है? ये तो दाने-पानी की तलाश में निकली तिलचट्टों की कोई भीड़ जान पड़ती है।” ड्राइवर ने हरीबत्ती की प्रतीक्षा में खड़ी अपनी कार के भीतर से मज़दूरों के समूह पर घिनौनी टीका-टिप्पणी की।”
“वाह गुरु वाह! आपने मज़दूरों को क्या उपमा दी है तिलचट्टों की।” उसके बग़लगीर ने ठहाका लगाते हुए उसकी बात का समर्थन किया, “आपने तो गोर्की की याद दिला दी।”
“हराम के पिल्लों।” कार के निकट मेरे साथ खड़ा कलवा उस कार वाले पर चिल्लाया, “हमारा शोषण करके तुम एशो-आराम की ज़िंदगी गुज़ार रहे हो और हमें तिलचट्टा कहते हो! मादर …. !” माँ की गाली बकते हुए कलवे ने सड़क किनारे पड़ा पत्थर उठा लिया। वह कार का शीशा फोड़ ही देता, यदि मैंने उसे न रोका होता। कार वाला यह देखकर घबरा गया और जैसे ही हरी बत्ती हुई, वह तुरंत कार को दौड़ाने लगा।
“कलवा पागल हो गए हो क्या तुम?” मैंने उसे शांत करने की कोशिश की।
“हाँ-हाँ पागल हो गया हूँ मैं। हम मज़दूरों की तबाह-हाल ज़िंदगी का कोई आमिरज़ादा मज़ाक उड़ाए तो मैं बर्दाश्त नहीं कर सकता। साले का सर फोड़ दूँगा। चाहे वह टाटा-बिडला ही क्यों न हो?” कलवा पर जनून हावी था।
“जल्दी चल यार, फ़ैक्ट्री का सायरन बजने वाला है। कहीं हॉफ-डे न कट जाये।” और हम दोनों मित्र, मज़दूरों की भीड़ में गुम हो गए।
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आज दिन का माहौल और दिनों की अपेक्षा गरम था। सूर्यदेव आकाश में जून की प्रचण्ड गर्मी के साथ बिराजमान थे। सभी मज़दूर फ़ैक्ट्री के बाहर सड़क किनारे बने काके के ढाबे पर दिन की चाय पीते थे। काके का असली नाम सरदार जोगिन्दर सिंह था। वह पंजाब के भटिंडा का रहने वाला था, लेकिन पंजाब गए उसे एक अरसा हो चुका था। उसके कोई औलाद न थी। दुर्घटना में पत्नी के गुज़र जाने के बाद से वह अकेला ही जीवन काट रहा था। मज़दूरों के साथ दो घड़ी हंस-बोल लेना ही उसका मनोरंजन था। रातों को वह तन्हाई में अक्सर बांसुरी होंठों पर लगाए राँझे वाली धुन बजाया करता था। चाय पीने के लिए दिन में फ़ैक्ट्री के मज़दूरों का जमघट-सा लग जाया करता था। चाय के अतिरिक्त बीड़ी-सिगरेट, तम्बाकू-गुटका भी ग्राहक उसके ढ़ाबे से ख़रीदते थे। सभी मज़दूर उससे परिचित थे। अतः ख़ूब गपशप भी चलती थी। जिससे निरन्तर काम के उपरान्त थकेहारे मज़दूरों को कुछ घड़ी आराम मिलता था।
“सतश्रीअकाल काके।” कलवा बिंदास अंदाज़ में बोला।
“आहो, सतश्रीअकाल जी…. बैठो बादशाहो, चाय तैयार है।” काके ने गिलासों में चाय उड़ेलते हुए कहा।
“तुम्हारी चाय की ख़ुशबू हमें यहाँ खींच लाती है सरदारजी।” मैंने बड़ी आत्मियता से कहा और दो गिलास उठा लिए। एक कलवा को पकड़ते हुए कहा, “साहब के मिजाज़ अब कैसे हैं? सुबह तो बड़े ग़ुस्से में थे!”
“क्यों? क्या हुआ था?” काके बोला, “ओ बादशाहो, रब दे वास्ते, मुझे भी कुछ बताओ।”
“ज़रा साँस तो लेने दो। हमें दो घूंट चाय तो पी लेने दो।” भूमिका बांधते हुए मैंने कहा, ततपश्चात चाय की चुस्की ली।
इस बीच काके की बढ़ती उत्सुकता देख मैंने सुबह का क़िस्सा संक्षेप में कह सुनाया। आस-पास उपस्थित अन्य मज़दूरों ने भी बड़े ध्यान से सुना। क़िस्सा सुनकर काके की भवों में बल पड़ गए। क्रोधवश उसकी आँखों के दायरे बड़े हो गए, “यार कलवे तूने स्साले की गाड़ी का शीशा फोड़ ही देना था।”
“क्या सरदार जी, आप भी उलटी शिक्षा दे रहे हैं?” मैंने पुनः चाय की चुस्की लेते हुए कहा।
“अरे यार काके रोज़ की कहानी है,” कलवा ने गरमा-गरम चाय को फूँकते हुए कहा, “घर से फ़ैक्ट्री … फिर फ़ैक्ट्री से घर… अपनी पर्सनल लाइफ़ तो बची ही नहीं… सारा दिन मशीनों की न थमने वाली खडखडाहट। चिमनी का गलघोंटू धुआँ। किसी पागल हाथी की तरह सायरन के चिंघाड़ने की आवाज़। कभी न ख़त्म होने वाला काम… क्या इसलिए ऊपरवाले ने हमें इन्सान बनाया था?” आसमान की तरफ़ देखकर जैसे कलवा ने नीली छतरी वाले से प्रश्न किया हो, “सुबह सही बोलता था, वह उल्लू का पट्ठा… हम तिलचट्टे हैं। क्या कीड़े-मकोड़ों की भी कोई ज़िंदगी होती है? क्या हमें भी सपने देखने का हक़ है?” काके की तरफ़ देखते हुए कलवा ने कहा।
“ओ बादशाहो मैं की कहूँ! मैंणु तो सपने ही नहीं आंदे।” काके ने हवा में हाथ लहराते हुए कहा, “लेकिन चाय पीते वक़्त मायूसी न फैलाओ। यहाँ मज़दूर भाई आते हैं। दो घड़ी बैठकर अपनी थकान मिटाकर चले जाते हैं। ज़िन्दगी ऐसे ही चलती है यारों।” काके ने माहौल को खुशनुमा बनाने की गरज से कहा।
“कलवा, तुम्हारी बात सुनकर मुझे पंजाबी कवि पाश की पंक्तियाँ याद आ रहीं हैं।” मैंने हँसते हुए कहा।
“यार तू बंदकर अपनी साहित्यिक बकवास। जिस दिन फ़ैक्ट्री में क़दम रखा था, बी.ए. की डिग्री मैं उसी दिन घर के चूल्हे में झोंक आया था।” कहकर कलवा ने चाय का घूँट भरा।
“सुन तो ले पाश की ये पंक्तियाँ, जो कहीं न कहीं हमारी आन्तरिक पीड़ा और आक्रोश को भी छूती हैं!” मैंने ज़ोर देकर कहा।
“तू सुनाये बिना मानेगा नहीं, चल सुना।” कलवा ने स्वीकृति दे दी।
“सबसे ख़तरनाक है मुर्दा शांति से भर जाना
न होना तड़प का, सब सहन कर जाना
घरों से रोज़गार के लिए निकलना और दिहाड़ी करके लौट आना
सबसे ख़तरनाक है हमारे सपनों का मर जाना,”
मेरे मुख से निकली ‘पाश’ की इन पंक्तियों ने आस-पास के वातावरण की गर्मी में वृद्धि कर दी।
“वाह दीनू कमाल है… ग़ज़ब कित्ता ओये!” काके ने हैरानी से भरकर कहा, “तुम दोनों तो बड़ी ऊँची-ऊँची बातें करने लगे हो। सच कहता हूँ इस फ़ैक्ट्री में तुम दोनों नहीं होते तो मैं कबका ये टी-स्टाल छोड़कर कहीं और चला गया होता।”
“अब कहाँ जाओगे काके इस बुढ़ापे में।” कलवे ने ठहाका लगाया, “और काके रही बात बातों की तो हम नपुंसक लोग बातों के सिवा कर ही क्या सकते हैं?” कहकर कलवा ने ठहाका लगाया।
“लो सिकन्दर मिर्ज़ा भी आ गए!” बग़ल में खड़ा लल्लन बोला।
“कहाँ रह गए थे सिकन्दर भाई! आज हॉफ-डे आ रहे हो।” साइकिल ढ़ाबे के बाहर खड़ी करके सिकन्दर मिर्ज़ा हमारी तरफ़ ही बढ़े चले आये तो मैंने मुस्कुराते हुए कहा, “चाय पियोगे!”
“चाय नहीं जनाब, मेरे मुहँ में गुटका है।” कहकर सिकन्दर मिर्ज़ा ने पैरों के पास रखे डस्टबीन में मुहँ में रोके हुए थूक को थूकते हुए कहा। फिर पास में पड़ी पानी की बोतल से थोड़ा पानी लिया और कुल्ला करके पुनः डस्टबीन की सेवाएं लीं। ततपश्चात पानी के कुछ घूंट हलक से नीचे उतरने के बाद उन्होंने फ़रमाया, “आज बड़ी बिटिया को अस्पताल में दिखाया तो महंगी-महंगी दवाएं लिखने के बाद डॉक्टर साहब कहते हैं—बेटी को अच्छी ख़ुराक खिलाओ। अब उस डॉक्टर को कैसे बताऊँ आठ-दस हज़ार रूपये में पांच बिटियों को पालना क्या होता है?” कहते-कहते सिकन्दर मिर्ज़ा ने अपनी आँखें बंद कीं। एक थकावट-सी उनके झुर्रिदार चेहरे पर उभर आई। वे रुआंसा होकर बोले, “मेरी ख़ुद की उम्र भी पैंतीस साल नहीं हुई! लेकिन पचास-पचपन से ऊपर का दिखाई देने लगा हूँ। शोषण और ग़रीबी ने मुझे जवानी में ही बूढ़ा बना दिया है।”
“हरेक मज़दूर की यही कहानी है मिर्ज़ा साहब। बचपन ख़त्म होते ही सीधा बुढ़ापे में क़दम रखता है। जवानी क्या होती है? इसे वह ठीक से जान भी नहीं पाता है।” आत्ममंथन की शैली में कलवा बोला, “कुपोषण पर सेलिब्रिटी द्वारा विज्ञापन दिए जाते हैं कि देश का हर दूसरा बच्चा कुपोषण का शिकार है। अब उसे कौन समझाए कि इस देश का मज़दूर बारह-चौदह घण्टे काम करने के बावज़ूद इतना नहीं कमा पाता कि बच्चे को अच्छा भोजन करा सके!” इतना कहकर कलवा मेरी तरफ़ ध्यान से देखने लगा, “क्या मज़दूर को शादी करने का हक़ है?”
“तुम तो गोर्की की तरह सोचने लगे हो कलवा।” मैंने गंभीरता इख़्तियार की, “मज़दूरों की तबाह-हाल ज़िन्दगी पर एक किताब क्यों नहीं लिख देते?”
“अरे यार छोड़ो ये सब!” कलवा ने हँसते हुए कहा। फिर काके की तरफ़ देखकर बोला, “काके भाई, ज़रा अपना टीवी तो आन कर, लंच ब्रेक ख़त्म होने तक कुछ समाचार ही देख लें।”
टीवी ऑन हुआ तो कल रात हुए रेलवे दुर्घटना के समाचार को दिखाया जा रहा था। दुर्घटना स्थल के तकलीफ़देह चित्र, बड़े विचलित करने वाले थे। इसलिए कैमरे को धुंधला करके मृतकों की लाशों को दिखाया जा रहा था। कुछ रोते-बिलखते परिवारजन। रेलमंत्री द्वारा मुआवज़े की घोषणा। मृतकों को पाँच-पाँच लाख और घायलों को दो-दो लाख।
“बाप रे…!” पास खड़े लल्लन ने आश्चर्य से कहा, “यहाँ दिन-रात मेहनत करके भी स्साला कुछ नहीं मिलता! उधर रेल दुर्घटना में मृतकों को पाँच-पाँच लाख!”
“काश! मृतकों और घायलों में हम भी होते!” लल्लन की बातों के समर्थन में जैसे कलवा धीरे से बुदबुदाया हो। काके के साथ, सिकन्दर मिर्ज़ा भी कलवा को आश्चर्य से देखने लगे।
मेरे हाथ से चाय का गिलास छूट गया और मैंने अपने जिस्म पर एक झुरझुरी-सी महसूस की।