तरक्की के आयाम
“तरक्की के आयाम”
कहां तो एक कूड़ेदान हुआ करता था, पूरे कुनबे के लिए
कहां आज, डस्टबिन मयस्सर हैं, हर एक कमरे के लिए
पहले फ़ल सब्ज़ियां, छीली कम, खाई ज़्यादा जाती थीं
चीज़ें भी फेंकी कम और इस्तेमाल ज़्यादा की जाती थीं
खाना कभी पैकिट में नहीं आता था उसे परोसा जाता था
पानी, पिलास्टिक बोतलों में नहीं, मटकों में रखा जाता था
लोग कूड़ा फेंकने के बहाने ही थोड़ा बहुत चलफिर लेते थे
इसी बहाने, मोहल्ले के, दो चार लोगों से भी मिल लेते थे
अब सिरहाने मुंहबाए खड़ा होता है मुआ कचरापात्र हमारा
न डालो इस में कुछ रोज़ाना, तो नाउम्मीद होता है बेचारा
ये नया दौर है, मजमूं से लिफ़ाफे की अहमियत है ज़्यादा
आज के बाज़ारों में लकड़ी से भी महंगा बिकता है बुरादा
~ नितिन जोधपुरी “छीण”