तप रहे हैं प्राण भी / (गर्मी का नवगीत)
गर्मियों में
तपी धरती
तप रहे हैं प्राण भी ।
झकर उतरी जंगलों की
झुलसतीं हैं पत्तियाँ सब,
ठूँठ-से ठाँड़े हैं बिरछा,
सिसकतीं हैं डालियाँ सब ।
लपट लेकर
हवा आती
तप रहे पाषाण भी ।
मर चुकी है काई सारी,
नदी जलती, घाट तपते ।
गैल सूनी पनघटों की,
कुएँ रीते,पाट तपते ।
सुलगती
अमराई छैयाँ,
तप रहे हैं त्राण भी ।
जरफराते पंख कोमल,
किलबिलाते चर-चरेरू ।
तपा खूँटा,गरम रस्सी,
तमतमाते हैं बछेरू ।
अँगीठी-सी
जिन्दगी का
दग्ध है निर्वाण भी ।
गर्मियों में
तपी धरती
तप रहे हैं प्राण भी ।
— ईश्वर दयाल गोस्वामी