तपिसों में पत्थर
तूफां में भी दीपों को जलते देखा है
अक्सर लोगों का वक्त बदलते देखा है
उनको आदत होगी मखमल पर चलने की
बहुतों को अंगारों पर चलते देखा है
रौशन सिर्फ़ चरागा महलों तक हो हमने
मैली गुदड़ी से लाल निकलते देखा है
जीवन संघर्षों में जो फँस जाते उनको
वक़्त से पहले ही हमने ढलते देखा है
गर्मी-गर्मी कह कर तुम ऊबे जाते हो
तपिसों में तो पत्थर को पिघलते देखा है
कद्र नहीं करते जो रुपयों की उनको सुधा
कंगाली में हाथों को मलते देखा है
डा. सुनीता सिंह ‘सुधा’
स्वरचित©®
वाराणसी