तपन ने सबको छुआ है / गर्मी का नवगीत
लपक कर
चढ़ गया पारा
पार सैंतालीस हुआ है ।
धधकती है
नदी सूखी,
उबलती है धूल,मिट्टी ।
चुर रहे हैं
फूल पत्ते
ईंट तपती तपी गिट्टी ।
दग्ध हैं
सब ताल,डबरे
जरफराता-सा कुआ है ।
तप रहा है
दूध माँ का,
किलबिलाते बाल-बच्चे ।
गर्म कूलर
की हवा है
तप रहे हैं मकाँ कच्चे ।
दही हो या
पना,नीबू
तपन ने सबको छुआ है ।
तप रहे हैं
मधुर रिश्ते
तप रही करुणा दया भी ।
तप रहा
वैधव्य सारा
औ’ सुहागिन की हया भी ।
समय जैसे
हर दिशा से
माँगता शीतल दुआ है ।
०००
— ईश्वर दयाल गोस्वामी
छिरारी (रहली),सागर
मध्यप्रदेश-470227