तकिये के नीचे की पूड़ी
बूढ़ी दादी बिमारी से जर्जर हो चली थीं बार – बार बच्चों की तरह थोड़ी – थोड़ी भूख लगती वो और सारी इक्षाओं पर तो काबू कर लेतीं पर ये मुयी भुख बड़ी बेदर्द थी काबू में ही नही आती उनके बिस्तर पर पड़े – पड़े भुख से बिलबिलाती रहतीं…कड़ी चीज़े खा नही सकती थीं हाँ पूड़ी खाने का बहुत मन करता…मुलायम भी रहती और देर – सबेर खाने में भी अच्छी रहती । पोती पाँच साल की थी कहानी सुनने के बहाने दादी के पास घुसी रहती , पोती के पास रहने का सुख तो मिलता लेकिन भूख वहीं की वहीं , दादी ने दिमाग लगाया और पोती से बोलीं की बेटा तुम अपना खाना यहीं ले आओ मैं खिला दूगीं पोती खाना लाती दादी के हाथों पेटभर खाती और बची हुई पूड़ी दादी तकिये के नीचे छिपा लेती और भूख लगने पर खाती रहतीं एक दिन बहु ने तकिये के नीचे पूड़ी देख ली फिर क्या था आसमान सर पर उठा लिया ” मैं तो इन्हें खाना देती नही हूँ जो अब इस उम्र में चोरी करके खाने लगीं हैं …दादी को कुछ कहते नही बन रहा था तभी पोती दौड़ती हुयी आई और बोली ” मम्मी ये तो मैने रखी है तकिये के नीचे पूड़ी ” बहु चुप और दादी मन ही मन पोती पर बलिहारी हुयी जा रहीं थीं ।
स्वरचित एवं मौलिक
( ममता सिंह देवा , 27/09/2019 )