ढाई आखर बेमानी
उतर गया समाज का पानी
तब ढाई आखर बेमानी
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सच्चा प्रेम विलुप्तप्राय है
प्रेमपत्र अब लिखे न जाते
इलू-इलू के चक्कर में पड़
अच्छे-अच्छे चक्कर खाते
आभासी हर प्रेम कहानी
तब ढाई आखर बेमानी
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मां से प्रेम नदारद है अब
नहीं पिता का घर में शासन
अब तो प्रेम उसी कपटी से
जो दे दे झूठे आश्वासन
कुसमय याद आती है नानी
तब ढाई आखर बेमानी
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इंच-इंच टुकड़ों में कटकर
अब लाडली कुकर में पकती
खबर उजागर हो जाने पर
त्राहि-त्राहि मानवता करती
रोता आज प्रेम रूहानी
तब ढाई आखर बेमानी
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महेश चन्द्र त्रिपाठी