ढाई आखर प्रेम का
यह पद संत कबीर का,
बूझ न पाया कोय,
“ढाई आखर प्रेम का,
पढ़े सो पंडित होय।”
प्रेम की भाषा सब जाने,
क्या राजा, क्या रंक,
प्रेम न कोई भेद करे,
क्या जाति, क्या रंग।
न कोई हिंदू, न कोई मुस्लिम,
न कोई मतभेद,
सबका लहू एक रंग फिर,
क्यों करे मनभेद।
अगड़ा, पिछड़ा एक रंग,
न कोई छूत, अछूत,
सब हैं एक गुरु के सेवक,
यह पक्का सबूत।
‘प्रेम’ सूत्र गुरुदेव का,
इससे वंचित न कोय,
ढाई आखर प्रेम का,
पढ़े सो पंडित होय।
मौलिक ब स्वरचित
©® श्री रमण
बेगूसराय (बिहार)