ढ़लती उम्र की दहलीज पर
दोस्तों,
एक मौलिक ग़ज़ल आपकी मुहब्बतों के हवाले,,,।
ग़ज़ल
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ढ़लती उम्र की दहलीज पर कदम रख दिया है
कैसे बताऊँ आते यहाँ तक, बहुत गम पिया है
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मैं भी था मस्तमौला मगर काम बहुत किया है
वक्त को है ये पता कैसे लब को हमने सिया है
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मजबूरी,हताशा निंदा की कभी न परवाह रही
जैसे भी जिया है जिंदगी, मस्ती में ही जिया है
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यूँ तो राहों में मेरी, संग-ओ-ख़ार कम न आऐ,
पार मगर सफर को हमने भी हंस के किया है
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है ये ख़बर जानिब से मेरी, उस रकीब को भी,
रह के अडिग डगर पर, हैरान उसे कर दिया है
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आशान न थी मंजिल मगर कदम बढाता गया
सच की राह में ‘जैदि’ मिला हर स्वाद लिया है
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शायर:-“जैदि”
डॉ.एल.सी.जैदिया “जैदि”