डोली
कमला को लगा वह आकाश से धरती पर आ गिरी हो गाड़ी रुकते ही अपनी विधवा मां के साथ उतर जाना पड़ा। चौकन्ना दृष्टि डाली, देहात था। उसे जिंदगी भर तो यहां रहना नहीं । मां ननंद के घर मेहमानी को आई है। कुछ दिन रुक कर अपने शहर लौट जाएंगे। मन ही मन कमला बुद-बुदाई। देहाती भाषा जब उसके कानो पड़ी तो समझ में कुछ नहीं आ रहा था
18 वर्ष की उम्र में पहली बार देहाती गांव में पैर पड़े रखे थे। मां तो देहाती भाषा जानती और बोल भी लेती थी। कमला के शरीर पर शहरी पोशाक की तड़क-भड़क देखकर गांव की अल्हड़ लड़कियां सहमी-सहमी देख रही थी। उनके पहनावे और कमला के पहनावे में कितनी भिन्नता है। कमला के तन से एक विचित्र सी बू से नाक सिकोड़ने लगती। जैसे घुटन हो रही हो उन्हें।
कमला की मां गांव की औरतों में बैठी बतियाने लगी थी। तभी कमला बोली ऐ मां गर्मी लग रही। नहाऊँगी मैं।
घर पर ही या तालाब में मां ने पूछा। “नहीं, घर पर नहीं” कमला बोली। तो छोकरियों के साथ तालाब पर नहा आ। और हां गहराई पर मत जाना। कमला उस रोज से तालाब पर ही नहा आया करती थी। कुछ-कुछ देहाती भाषा भी समझ आने लगी थी। एक रोज मां की आवाज जब कमला के कानों पर पड़ी तो वह दंग रह गई।
बिन्ना कोई अच्छा सा लड़का मिल जाय तो कमला के हाथ पीले कर छुट्टी पा लूँ। सुनकर सन्नाटा छा गया। सोचा न था कि मां यहां उसकी शादी का जिक्र कर उठेगी। और गये रोज कमला ने शादी के वातावरण का गाढ़ा पन देखा। तो रहा न गया। मां मैं किसी सूरत मे यहाँ शादी नहीं कराउँगी। कमला की मां जानती थी कि देहात मे कोई लड़की ऐसी बात जुबान से नहीं निकाल सकती। इसलिए लज्जा का सामना करती मां बोली तू चुप रह। तुझे कुछ कहने की जरूरत नहीं। “हाँ भाभी गांव की लड़कियां तो शादी के नाम से ही पानी पानी हो जाती हैं । लाज शरम तो दूर कमला ने तो मुह की बात ही छीन ली” एक महिला ने कहा। नहीं बिन्ना ऐसा कुछ नहीं थोड़ा शहर के वातावरण मे रही आई इसीलिए। कमला की मां ने समझा के कहा। लड़किया मेरी है मैं जैसा चाहूंगी वैसा होगा। कट्टर विश्वास से जब कमला की मां ने कहा तो कमला की आंखें अनायास ही छलक उठी। बहुत कुछ कहने को मन हुआ। पर यह सोच कर चुप रही कि शादी यूं ही तो हो नहीं जायेगी। मैं कराउँगी तभी न। पर मां जो कह चुकी थी। उसने लड़का भी देखा था। मां ने सोचा समय के साथ-साथ हर किसी मे बदलाव आ जाता है । कमला भी बदल जायेगी।
जब शादी निश्चित हो गई तो कमला के लाख आंसू बहाने पर भी मां की बात अकाट्य ही रही। कमला ने कभी सपनों में भी सोचा नहीं था कि मां एक देहाती गंवार लड़का के साथ इतनी निर्दयता से शादी तय कर देगी।
मां ने बेटी का लड़कपन सोच कर उसकी बातों की ओर कतई ध्यान नहीं दिया। वह यह मानती रही कि बिटिया क्या जाने। कोई मां यह नहीं चाहती कि उसकी औलाद हंसते मुस्कुराते जिंदगी न गुजारे। कोई माता-पिता बहुतायत में दान दहेज दे भी दे तो भी इस बात की क्या गारंटी की लड़की जिंदगी भर खुश रहेगी। फिर शहरी दान दहेज का ध्यान आते ही हृदय थरथरा जाता। कमला की मां के पास था ही क्या? उसकी यही विवशता गांव खींच लाई थी। गांव के आदमी को आदमी की कदर रहती है। कमला भी जिंदगी भर निशंक चैन से खाएगी। और दो वसन पहनेगी। कमला की हर इंकारी के बावजूद शादी कर ही दी गई। ससुराल जाते जाते मां ने रोते हुए कहा था बेटी इस विधवा मां की लाज रख लेना। बेटी की डोली एक बार बाबुल के घर से और एक बार ….। आगे वह कुछ ना कह पाई। अवरुद्ध गले से कमला से लिपट-लिपट कर खूब रोई थी। कमला को ससुराल में लगभग एक-डेढ़ माह होने जा रहा था। उसे अच्छा नहीं लग रहा था। पर जाए तो जाए कहां। विवश थी वह। मां तो शादी की बेड़ियों में जकड़ कर वापस शहर लौट गई थी। धीरे-धीरे दिन, माह और वर्ष भी बीतने लगे। कमला घर की छपरी में बैठी तब तक आंसू बहाती।
नाखून से धरती को खुरच रही थी। उसे बीते समय और आज की हालत में पिछला सब कुछ सपना सा प्रतीत होने लगा था। उसके अंतर्मन की पीड़ा वही जानती थी। अपना दुख एक बार फिर मां से कह सुनाया था पर मां ने उसकी बात पर विश्वास ना किया था कि तेरे पर तो शहर का रंग सवार है। घरवालों से भला क्यों मन मिला कर रहेगी। एक ना एक बहाना बनाती रहती है। रिश्तेदारी में गांठ पाड़ती है। आज भी घर वालों की कमला से खूब लड़ाई हुई थी। कितना टूट गई थी वह। शादी के पहले की जिंदगी में कहां कुएं से पानी खींचा था। कहां घसीटी थी चून की चक्की। फिर भी अपने आप से समझौता कर इस सब के लायक बना लिया था। तो भी घर वालों का व्यवहार वही का वही। कोई भी तो स्नेह से बात नहीं करता। मां ने भी क्या-क्या सपने देखे थे कमला के लिए। गायें हैं, खेती बाड़ी है, पर सब व्यर्थ। जाने कब से तो गेहूं की रोटी का मुंह ना देखा था। घी-दूध के नाम पर छाछ से भी वंचित रखा जाता। हां चक्की घसीटकर गोबर पानी जरूर करना पड़ता। कमला को कल जबरदस्ती खेत पर ले जाया गया था। वजनी काम लिया गया उससे। संध्या को जब घर लौटी तो आटा पीसते-पीसते हथेलियां जल उठीं। सारी रात पीड़ा से कराहती रही। सुबह देखा तो हथेलियों में फफोले पड़ गए थे। चक्की घसीटने की हिम्मत ना हुई।
सारी रात आराम करते करते थकी नहीं। मुंह अंधेरे से ही बैठी है। पीसा भी नहीं। अब खायेगी क्या। दनदनाती कमला की सास अंदर से बाहर और बाहर से अंदर आने जाने का उपक्रम करने लगी। कमला चुप रही। दो होंठ न फोरे।
किससे अपनी विपदा कहे। पतिदेव ठहरे पक्के भोंदू। मां के बीच में नहीं बोल सकते। लेकिन अपने आगे भी तो मीठे दो बोल न बोले थे।
किसी के दुख दर्द की उन्हें क्या। अपनी बदकिस्मती पर आंसू बहाने के सिवा और कर भी क्या सकती थी। किसी के आने की आहट पाकर लोक लज्जा वश ज्यों ही कमला ने घूंघट सरकाया तो साड़ी की किनार हाथ में आ गई। जी धक कर गया। उसी क्षण सास ना जाने कहां से आ टपकी। यह है काम कर रही। बैठे-बैठे धोती फाड़ दी। जान खाएगी कपड़ों के लिए। कभी एक चिंदी ही तो ले दी होती। कमला ने साहस जुटाते कहा।
आय हाय चमड़ी घोर कमाई कर और पहन कपड़े। बैठे बैठे कौन सजाए रहेगा। कुछ न करने की तो बस कसम ले ली। किसी का दर्द भी तो समझो मां ये फफोले आंसू टपक पड़े कमला के। अरे बहुत जख्म हो गए। हाथ गल गए। चुप रही कमला। जगह-जगह से फटी धोती से झांकता अंग-अंग पीड़ा कह रहा था। पूरा दिन निकल गया। कमला ने पेट मसोड़ा। शायद भूख इतना सताने लगी कि कुछ भी खाने को मिल जाए। पर खाए क्या। मिट्टी पत्थरों से तो पेट भरा नहीं जाता। शाम हुई तो सास के वही ताने। दिन भर बैठी रही। चमड़ी रखाए रही। कुछ तकलीफ ना हो जाए। क्या करेगी इस मास का। कमला आसुओं के घुट पीती चुपचाप सुनती रही। रात की आशा भी झूठी गई। सब लोग खा पी कर के सो चुके थे। आखिर कमला कब तक बैठी रहती। भूख से तड़पती फर्श पर लोट गई। मारे भूख के सारी रात आँख न लगी। धुन्धलके में मां के कमरे के सामने डरते डरते पुकारने लगी। मां जी क्या करना है। कमला के पुकारते ही सास का पारा चढ़ गया। बड़ी आई काम करने वाली। बहुत कमेली है न। खुद दिन-रात घुर्राटे मारती रहती और दूसरों को पलभर भी चैन नहीं लेने देती। कानफाड़े दे रही। यही ना कि पड़ोस वाले जान ले कि बहुत काम करती है। रात दिन चैन नहीं बेचारी को। ले पीस कहते कमला की सास ने सामने टोकनी भर अनाज पटक दिया। कमला बामुश्किल से टोकनी उठा पाई। अभी थोड़ा सा ही आटा निकाल पाई थी कि हथेलियों के फफोले फूट पड़े। रसम के बाद खून बह निकला तो भी साहस जुटाती रही। पसीने में चूर-चूर कमला ने एक दृष्टि गल्ले पर डाली। फिर साहस किया किंतु हिम्मत ने जवाब दे दिया। हथेलियां खून से खून से पिचपिचा उठीं। कुनमनाती आंतों में तीव्रता से जलन होने लगी थी। कमला ने सोचा शायद भूख की वजह से। लेकिन जब जलन और जोर पकड़ने लगी तो घरवालों को सुनाया। लेकिन यह कहकर टाल दिया कि यह बहाना ढूंढा है। कोई देख भी तो नहीं सकता। पूरे 15 दिन हो चुके थे। चार-छह दिनों से तो दूध पीना भी छूट गया था। आंखें काले गड्ढों में धस गई थी। उसके जबड़े उभर आए और चेहरा अनपहचाना बन गया था। शायद मां की प्रतीक्षा में सांस की डोर रोके-रोके और कितने दिन बीत गए थे। आशा निराशा में बदल गई थी पर मां न आई। शायद मां को खबर न पहुंचाई थी।
और जब तक मां आई तब तक बहुत देर हो चुकी थी। मां दरवाजे से कुछ फासले पर थी कि सकते में आ गई। पथराई डबडबाई आंखों से देखा। जनसमूह अपने कंधों पर लाल लिबास में लपेटे डोली उठाएं आहिस्ता आहिस्ता बह रहे थे। कमला की मां की आंखों में आंसुओं की धुंधलाहट भर्ती जा रही थी। डोली कमला की मां के करीब आकर ठिठकी और डोली जैसे कराह भरी आवाज आ रही थी। अब क्या है मां। जाने भी दो मुझे। इसे तू रोक लेने को बेताब है पर रोक सकने को मोहताज है। तेरे वचन पूरे किये मां। तूने मेरी आत्मा की एक भी बात सुनने को तैयार न हुई। न रोक मेरा रास्ता। ये तेरे बस की बात नहीं रह गई। तूने कहा था ना मां; लड़की की डोली एक बार बाबुल के घर से और दूसरी बार ससुराल से….।।
पल भर सन्नाटा छा गया। फिर पार्थिव शरीर की डोली मां के सामने से गुजर गई। आंसुओं की धुंध में डोली दूर आंखों से ओझल होती देखती रह गई।