‘डोरिस लेसिगं’ (घर से नोबेल तक)
‘डोरिस लेसिगं’ (घर से नोबल तक)
मिटा दो अपनी हस्ती को, अगर कुछ मर्तबा-चाहो।
कि दाना खाक में मिलकर गुल-ए-गुलजार होता है।।
‘डोरिस लेसिगं’ का जन्म पर्सिया (अब ईरान) में हुआ था। उनके माता-पिता दोनों ब्रिटिश थे। पिता पर्सिया के इम्पीरियल बैंक में कलर्क और माँ एक नर्स थी। लेसिंग का बचपन सुख और दुःख दोनों की छाया में बीता था,जिसमें सुख कम और दुःख अधिक था। डोरिस लेसिंग जिस परिवार से थी, वहाँ से नोबल पुरस्कार का सफर नामुमकिन तो नहीं लेकिन आसान भी नहीं था। डोरिस की राह में अनेकों मुश्किलें और रोड़े आए लेकिन डोरिस ने बहुत ही हिम्मत और दिलेरी के साथ उसका सामना किया। डोरिस का परिवार पर्सिया से कुछ वर्ष के बाद दक्षिण अफ्रिका चला गया और बाद में दक्षिण अफ्रिका से भी विस्थापित होकर वे सब ब्रिटेन चले गए। डोरिस के पिता विश्व युद्ध में घायल हो जाने के बाद अपाहिज हो गए थे लेकिन उन्होंने बैंक की नौकरी नहीं छोड़ी थी। परिवार समृद्ध था। डोरिस की माँ बहुत ही रुढ़िवादी और कड़क स्वभाव की थी। डोरिस की माँ ने उसे एक ऐसे स्कूल में दाखिला करवा दिया था जहाँ लडकियों को केवल घर-गृहस्ती के ही काम सिखाए जाते थे। डोरिस वहाँ खुश नहीं थी क्योंकि डोरिस आगे पढ़ना चाहती थी। डोरिस ने उस स्कूल का विरोध किया। डोरिस के विरोध के पश्चात् उनकी माँ ने स्कूल ही जाना बंद करवा दिया था। डोरिस की पढ़ाई छुट गई, लेकिन उनके सपने नहीं टूटे थे। उसने अपना पढ़ना-लिखना नहीं छोड़ा। उन्हें जो भी पुस्तकें मिलती थी वे उन सभी पुस्तकों को चोरी से छुप-छुप कर के पढ़ती थी। डोरिस के स्वभाव से उनकी माँ खुश नहीं थी। डोरिस को पढ़ने-लिखने का बहुत शौक था इसलिए वे पढ़ाई-लिखाई के रोक-टोक को बर्दाश्त नहीं कर पाती थी। एक दिन उन्होंने अपना घर छोड़ दिया। तब उनकी उम्र 15 वर्ष की थी। दूसरे शहर में जाकर वे नर्स की नौकरी करने लगी। डोरिस जिनके यहाँ नर्स की नौकरी करती थी, संयोगवश उनके घर में बड़े-बड़े विश्व प्रसिद्ध लेखकों की पुस्तकें रखी हुई थी। वहाँ उन्हें टालस्टाय, दोस्तोवस्की, डी.एच.लारेंस, आस्कर वाइल्ड, स्कॉट, स्टीवेंसन जैसे प्रतिष्ठित लेखकों की पुस्तकों को पढ़ने का भरपूर अवसर मिला। सन् 1937 ई० में उन्हें दूसरी नौकरी मिल गई और वे सेलस्विरी शहर में टेलीफोन ऑपरेटर बन गई।
इसी शहर में आने के बाद डोरिस की पारिवारिक जिंदगी की शुरुआत हुई। यहीं उनके दो विवाह हुए। सन् 1939 ई० में डोरिस लेसिंग ने ‘फ्रैक विल्सन’ नाम के एक व्यक्ति से विवाह कर लिया। जिनसे उन्हें दो बच्चे हुए किन्तु यह संबंध चार वर्ष तक ही रहा और सन् 1943 ई० में उनका तलाक हो गया। दूसरा विवाह उनहोंने एक जर्मन राजनैतिक कार्यकर्ता गाटफ्रीड लेसिंग से किया। ये शादी भी अधिक समय तक नहीं चला और सन् 1949 ई० में फिर तलाक हो गया। इस विवाह से हुए अपने बेटा को लेकर वे ब्रिटेन आ गई। कुछ समय बाद उन्हें महसूस होने लगा कि वे पारिवारिक जिम्मेदारियों के बीच अपनी रचनात्मकता को खोने लगी हैं। इन बातों को सोंचकर वे मन ही मन बेचैन होने लगी। । डोरिस का कहना है कि- “उन्हें पढ़ने-लिखने की बहुत ज्यादा ललक था। उन्होंने पहले माँ का घर छोड़ा और बाद में पति और बच्चे को भी छोड़ दिया। जिंदगी में इस तरह के फैसले लेना बहुत ही कठिन होते है”। वे अपने पढाई पर लगे बंधनों से बहुत आहत होती थी। एक बार उन्होंने अपने वक्तव्य में कहा था- “दुखी बचपन “फ़िक्शन”(लेखन) का जनक होता है” मेरे विचार से यह बात सोलह आना सही है”। उसी वर्ष उनका पहला उपन्यास ‘द सिंगिग ग्रास’ छपा जो बहुत चर्चित हुआ। इसी के बाद उन्होंने विधिवत लिखना शुरु कर दिया। अब उन्होंने लेखिका बनकर ही जीने का फैसला कर लिया। इसके बाद उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा। उन्होंने अपने जीवन में जो कुछ देखा, अनुभव किया उसे ही अपने साहित्य का विषय बनाया। जो कुछ उन्होंने लिखा पूरी ईमानदारी और साहस के साथ लिखा। वे अपनी माँ की बातों को उपन्यास के माध्यम से कहकर लोगों तक पहुँचाती थी। समीक्षकों ने भी उन्हें उनके उपन्यास के पात्रों के ही रूप में देखा। उनका पहला उपन्यास ‘द ग्रास इज सिंगिग’ था। जो सन् 1949-50 ई० में प्रकाशित हुआ। इसके बाद उन्होंने कई उपन्यास लिखे जिसे ब्रिटेन के अलावा दूसरे देशों में भी सराहा और सम्मानित किया गया। लेसिगं की प्रमुख कृतियों में ‘गोल्डन नोटबुक’ और ‘दी समर बिफोर द डार्क’ भी शामिल था। वर्ष सन् 2007 ई० में साहित्य के लिए नोबल पुरस्कार पाने वाली लेसिगं सबसे बुजुर्ग लेखिका थी। उस समय उनकी उम्र 88 वर्ष थी। यहाँ तक पहुँचाना लेसिगं के लिए उतना आसन तो नहीं था। पर जीवन में कभी-कभी कुछ पाने के लिए कुछ खोना भी पड़ता है। किसी-किसी को तो बिना कुछ खोए ही सब कुछ मिल जाता है और कुछ को सब कुछ खोकर भी कुछ नहीं मिलता है। लेसिगं के एक मित्र ने कहा- “वे बहुत उम्दा लेखिका थीं उनके पास फंतासी और मौलिक दिमाग था। उनके लिए काम करना मेरा सौभाग्य रहा, हम उन्हें भुला नहीं सकते”।
हार्पर कोलिंस यूके की मुख्य कार्यकर्ता अधिकारी चार्ली रेडमेनी कहती हैं- “लेसिगं हमारे दौड़ की महान लेखिकाओं में से एक थीं जो कहानी कहने की कला में माहिर थीं”। वर्ष 1962 में प्रकाशित ‘गोल्डन नोटबुक’ से लेसिगं को ख्याति मिली। कहते हैं “यदि कोई भी शख्स किसी चीज को पाने की दिलोजान से कोशिश करे तो दुनिया की कोई भी ताकत उसे अपना लक्ष्य प्राप्त करने से नहीं रोक सकती है”।