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1 Jan 2018 · 38 min read

चुनिंदा लघुकथाएँ

चुनिंदा लघुकथाएँ
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अनुक्रमणिका
1. तलाकशुदा
2. बड़े बाबू
3. संतुलन
4. अपना पराया
5. नेताजी का रक्तदान
6. गुरुदक्षिणा
7. ट्यूशन
8. इंडियन टाइम
9. शैक्षिक विकास
10. जुगाड़
11. द्रोण की विवशता
12. भक्ति
13. राजनीति
14. शराबी
15. इमरजेंसी ड्यूटी
16. इमोशानल पोस्ट
17. वह लड़की
18. बोल बम
19. प्राचार्य जी
20. दीपक का तेल
21. अपनी अपनी दिवाली
22. मेरा भारत महान
23. सवर्ण
24. आरक्षण
25. विडम्बना
26. मजहब
27. सितारा
28. सपना
29. घडियाली आंसू
30. शिक्षक
31. माँ
32. चोर कौन
33. राजनीति
34. जिन्दगी का सफ़र
35. सारा सिस्टम गलत है
36. उपहार
37. वेलेंटाइन डे
38. चिल्हर
39. होटल में फोटो सेशन
40. फर्क तो पड़ता है
41. क्रिकेटफैन फैमिली
42. सहयोग आधारित संकलन
43. कन्यादान
44. भाभी की नफ़रत और भैया का प्यार
45. अंधभक्ति
46. फेसबुक का कमाल
47. लाईक एंड कामेंट्स
48. फिल्म हिट करने का फार्मूला
49. संस्कृति के रक्षक
50. मदद
51. शादी की तैयारी

तलाकशुदा
‘‘ऐ जी !’’
‘‘हूँ।’’
‘‘आपसे एक जरूरी बात करनी है। डरती हूँ कहीं आप बुरा न मान जाएं।’’
‘‘ऐसी कौन-सी बात है, जिसे कहने पहले तुम्हें अनुमति लेने की आवश्यकता पड़ रही है ?’’
‘‘जी मैं कहना चाह रही थी आप मुझे तलाक दे दीजिए।’’
‘‘क्या बक रही हो ! तुम्हारा दिमाग तो खराब नहीं हो गया है।’’
‘‘आप तो खामखाँ नाराज हो रहे हैं जी। देखिए अब आपकी तो नौकरी मिलने की उम्र निकल ही चुकी है। अगले महिने मेरी भी निकल जाएगी। ऐसे बेरोजगारी में हमारा कैसे गुजारा होगा ? यदि आप मुझे तलाक दे देंगे तो मैं तलाकशुदा कहलाऊँगी और उम्र में छूट के साथ-साथ आरक्षण की भी हकदार बन जाऊँगी। तलाक सिर्फ कागज पर ही होगा। यदि जरूरत पडी तो मैं कुछ दिनों के लिए मायके चली जाऊंगी। सरकारी नौकरी के मिलते ही हम दोनों फिर से शादी कर लेंगे।”
अब वह गंभीरता से सोचने लगा।
————

बड़े बाबू
पिछले कुछ दिनों से बड़े बाबू गुमसुम-से रहने लगे थे। उन्हें एक ही चिंता खाए जा रही थी- ‘‘क्या होगा इस परिवार का.. ? अभी तो वेतन से जैसे-तैसे गुजारा हो जाता है, लेकिन अगले महीने रिटायर होने के बाद… ? पेंशन में मिलेगा ही कितना… ? मकान भाड़ा, बेटे की तो खैर कोई बात नहीं पर दो-दो बेटियों की शादी… ? बीमार पत्नी की दवा दारू का खर्च… ? कहाँ से आएगा इतना पैसा…. ? फिर यदि उन्हें कुछ हो गया तो…. ? क्या होगा… ? क्या होगा… ? प्रावीडेण्ट फण्ड… बेटे को अनुकम्पा नियुक्ति… पत्नी को विधवा पेंशन… दोनों बेटियों की धूमधाम से शादी…. अब ये बूढ़ा शरीर और कर भी क्या सकता है…? अपने परिवार की खातिर…। हां, अपने परिवार की खातिर…।’’
कुछ ही दिन बाद अखबार में बड़े बाबू की सड़क दुर्घटना में असामयिक मृत्यु का समाचार पढ़ने को मिला।
————

संतुलन
ग्राम पंचायत की बैठक चल रही थी। इसमें सरकार द्वारा मनरेगा के मजदूरों का भुगतान सीधे उनके खाते में जमा करने के आदेश और उसके क्रियान्वयन एवं इसके पंच-सरपंच के कमीशन पर संभावित असर के संबंध में गंभीर चर्चा हो रही थी।
बैठे गले से सरपंच जी बोल रहे थे- “अब तो हमारे लिए कोई गुंजाइश ही नहीं बची। सरपंची के लिए चुनाव में जो खर्चा किया था, वह भी निकलना मुश्किल है।”
एक अनुभवी, घाघ पंच बोला- “ऐसे में हमारा गुजारा कैसे होगा ? इसका कोई न कोई तोड़ निकालना ही पड़ेगा।”
चश्मा उतारते हुए सचिव महोदय बोले- “किसी को भी परेशान होने की जरूरत नहीं है। आप सब अपने-अपने परिवार के सभी व्यस्क लोगों के नाम से बैंक में खाता खुलवा लीजिए। मजदूरी का पैसा सीधे उनके खाते में पहुंच जाएगा। और हां, सभी मजदूर अब प्रतिदिन दो घंटे ज्यादा काम करेंगे, ताकि संतुलन बना रहे।”
अब सबके चेहरे पर संतुष्टि के भाव स्पष्ट रूप से देखा जा सकता था।
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अपना पराया
हमारी शादी को छह माह से भी अधिक हो गए थे। माँ अपनी नई-नवेली बहू का विशेष ध्यान रखती थीं। मैंने सोचा नई-नई है, इसलिए स्थिति ऐसी है, लेकिन तीन साल बाद भी वही स्थिति देखकर एक दिन मैंने माँ से पूछ ही लिया- ‘‘माँ ! तुम तो अपनी बहू को इतना प्यार करती हो, जैसे वह तुम्हारी अपनी सगी बेटी हो।’’
माँ ने समझाया- ‘‘बेटी अपनी कहाँ होती है बेटा ? शादी के बाद तो वह परायी हो जाती है। शादी के बाद परायी बेटी जब अपनी हो जाती है, तो फिर मैं उसे क्यों न प्यार करूँ ?
माँ की बातें सुनकर मन को बड़ा संतोष हुआ, काश ! सभी माँएँ ऐसा ही सोचतीं, तो आज दहेज समस्या न होती और इसके नाम पर कोई बेटी या बहू असमय काल-कवलित न होती।
……………

नेताजी का रक्तदान
आज हॉस्पीटल में अन्य दिनों की अपेक्षा कुछ ज्यादा ही चहल-पहल थी. पत्रकार, फोटोग्राफर और अनगिनत छुटभैये नेताओं की भीड़ सुबह से जुटने लगी थी.
पता नहीं क्या माजरा है ?
पूछने पर सामने वाले मेडिकल स्टोर के मालिक ने बताया- “आज नेताजी रक्तदान करने के लिए आने वाले हैं. ये सब उसी की तैयारी में लगे हुए हैं. मीडिया में अच्छी कवरेज मिले, सभी एंगल से फोटो खिंचे, इसलिए सबको बराबर हिदायतें दी जा रही है.”
मैं सोच में पड़ गया कि क्या ऐसा भी कोई दान होता है.
……………

गुरुदक्षिणा
अर्जुन सहित लगभग सभी लोग यही मानकर चल रहे थे कि विश्वविद्यालय शिक्षण विभाग में व्याख्याता के एकमात्र रिक्त पद पर गोल्ड मैडलिस्ट अर्जुन की ही नियुक्ति होगी।
आरक्षित वर्ग का होने के कारण तृतीय श्रेणी में उत्तीर्ण एकलव्य भी अपनी नियुक्ति के प्रति आश्वस्त था।
चयन सूची में द्वितीय श्रेणी में उत्तीर्ण हुए दुःशासन का नाम देखकर सभी चकित रह गये। बाद में पता चला कि उसने कुलपति द्रोण को मुँहमाँगी गुरुदक्षिणा दी थी, जिससे साक्षात्कार में उसे सर्वाधिक अंक मिले और उसका चयन हो गया।
……………

ट्यूशन
ट्यूशन को उद्योग का दर्जा मिलने के बाद देश के सबसे बड़े उद्योगपतियों में से एक मास्टर छेदीलाल से एक पत्रकार ने साक्षात्कार के दौरान पूछा- ‘‘सर, आप अपनी सफलता का राज, हमारे पाठकों को बताने का कष्ट करेंगे।’’
‘‘इसमें कोई राज की बात नहीं है। बस त्रैमासिक परीक्षा में जानबूझकर अधिकाधिक छात्रों को, खासकर मध्यम और उच्च वर्गीय परिवार के छात्रों को फेल कर दिया जाय, तो वे सभी आपके यहाँ ट्यूशन पढ़ने आने लगेंगे।’’ मास्टर छेदीलाल जी ने एकदम व्यावसायिक अंदाज में जवाब दिया।
……………

इंडियन टाइम
भारतीय रेल्वे के इतिहास में उस दिन शायद ऐसा पहली बार हुआ कि ट्रेन अपने निर्धारित समय पर स्टेशन पहुँची और चली भी गई।
उस दिन ट्रेन में सफर करने वाले यात्रियों की संख्या सबसे कम रही और ज्यादातर रिजर्वेशन कैंसिल कराए गए क्योंकि यात्री उस समय तक स्टेशन ही नहीं पहुँच सके थे।
……………

शैक्षिक विकास
शिक्षा के स्तर में सुधार करने के लिए शासनादेश जारी हुआ कि जिन अध्यापकों का परीक्षा परिणाम संतोषजनक नहीं होगा उनकी वार्षिक वेतन वृद्धि रोक दी जाएगी।
शिक्षा सत्र पूरे जोश के साथ शुरु हो गया। इसी बीच चुनाव कार्यालय ने मतदाता सूची के संशोधन हेतु दो माह के लिए तीस प्रतिशत शि क्षकों की चुनावी ड्यूटी लगा दी, उसके बाद पल्स पोलियो अभियान तथा अन्य प्रकार के सर्वे करने के लिए भी कुछ अन्य शिक्षकों को लगाया गया।
विद्यालय में शिक्षा सत्र भी चलता रहा। आनन-फानन पाठ्यक्रम पूरा होता रहा।
शिक्षा सत्र समाप्ति की ओर बढ़ गया। वार्षिक परीक्षाएँ शुरू हो गईं। वेतनवृद्धि रूकने के डर से परीक्षा-कक्ष को सामूहिक नकल केंद्र में बदल दिया गया।
छात्र खुश थे कि वे अगली कक्षा में पहुँच गए और शिक्षकों का खुश होना स्वाभाविक था क्योंकि किसी की भी वेतनवृद्धि नहीं रोकी गई।
शिक्षा के स्तर में गुणात्मक सुधार की चर्चा चारों ओर हुई और राज्य सरकार ने अपने एक वर्ष का शासनकाल पूर्ण होने पर इसे अपनी एक उपलब्धि के रूप में प्रचारित करवाया।
……………

जुगाड़
वर्मा साहब से उनकी श्रीमती जी बोली- ‘‘क्या बात है जी, इस बार आप कोई जुगाड़ नहीं भिड़ा रहे हैं। क्या हमारी दीवाली ऐसे ही रूखी-सूखी मनेगी ?’’
‘‘क्या करें डार्लिंग, मजबूरी है। इस आदर्श चुनाव आचार संहिता ने तो हमारे हाथ-पाँव बांधकर ही रख दिए हैं। न अपायंटमेण्ट न ट्रांसफर, न सस्पेण्ड न रिस्टेण्ड।’’ उन्होंने अपनी विवशता बताई।
……………

द्रोण की विवशता
‘‘परन्तु क्यों सर मेरी नियुक्ति इस पद पर क्यों नहीं हो सकती ?’’ विश्वविद्यालयीन प्रावीण्य सूची में प्रथम स्थान प्राप्त अर्जुन ने पूछा।
‘‘बेटा मैं मजबूर हूँ। यह पद आरक्षित श्रेणी के लिए है।’’ कुलपति द्रोणाचार्य ने अपनी विवशता बताई।
……………

भक्ति
पूरी पंडिताइन है मालती। गजब की पूजा-पाठी कोई भी व्रत-त्योहार नहीं छोड़तीं। हरेली, जन्माष्टमी, महाशिवरात्रि, करवा चौथ, हरितालिका व्रत, सब निर्जला रखती हैं। आज के युग में भी वह प्याज, लहसुन तक नहीं खाती।
वह अन्नपूर्णा देवी का व्रत करती है। इस बार उद्यापन करना था। धूमधाम से तैयारियाँ चल रही थी। रोज बाजार आना-जाना लगा ही रहता था। एक अच्छा पड़ोसी होने के नाते कई बार मैं भी साथ में चला जाता था। इक्कीस ब्राह्मणों को भोजन कराना, सात प्रकार की मिठाई, सात प्रकार के फल और सात सौ रूपए दक्षिणा की व्यवस्था करना कोई आसान काम तो नहीं था।
आज बाजार से लौटते समय घर के बाहर एक गरीब भिखारन, जो ठीक से खड़ी भी नहीं हो पा रही थी, अपने दूधमुहे बच्चों को गोद में लेकर मालती के सामने गिड़गिड़ाने लगी, ‘‘माई कुछ खाने को दे दो तीन दिन से पेट में कुछ गया नहीं है। छाती में दूध नहीं आने से बच्चा भी भूख से बेहाल है। माँई थोड़ा रहम हो जाए।’’
मालती मारे गुस्से से तमतमा उठी, ‘‘चल-चल परे हट। छूना मत अभी, ये सब अशुद्ध हो जाएँगे। मुझे अभी और भी बहुत सी तैयारी करनी है।’’
……………

राजनीति
एक दिन बिल्ली ने चूहे को पुचकारते हुए कहा- ‘‘तुम व्यर्थ ही मुझसे डरते हो। मेरे साथ रहने की आदत डाल लोगे, तो मौज करोगे।’’
‘‘मैं तुम्हारी राजनीति में नहीं आने वाला।’’ चूहे ने कहा और अपने प्राण बचाने झट से बिल में घुस गया।
बिल्ली किसी दूसरे चूहे की तलाश में चल पड़ी। बहुत घूमने के बाद जब वह लगभग निराश हो चुकी थी, तभी एक चूहा उसके पास आया। उसने कहा- ‘‘मेरे पड़ोसी चूहे के आतंक से मुझे बचाओ, जो मेरा सारा अनाज खा-खाकर बहुत मोटा होता जा रहा है और अक्सर मुझे धमकाता भी है।’’
बिल्ली को अपनी बात बनती दिखाई दी। वह छोटे से चूहे के साथ बड़े चूहे की खबर लेने पहुँच गई। उसने सोचा ‘‘पहले उस चूहे को देख लूँ ! यह मूर्ख तो अब जाएगा कहाँ।’’
……………

शराबी
शराबियों को पकड़ने के लिए थानेदार द्वारा सिपाहियों का एक दस्ता नियुक्त किया गया।
अगले दिन सुबह थानेदार को दस्ते के सारे सिपाही नशे में धुत्त थाना परिसर में अस्त-व्यस्त पड़ हुए मिले।
……………

एमर्जेन्सी ड्यूटी
यह इत्तफ़ाक ही था कि जिस दिन उसे सावधि जमा योजना के पैसे मिले, उसी दिन गाँव से पिताजी का तार आ गया- ‘‘तुम्हारी माँ की हालत बहुत खराब है, अच्छा होगा कि उसे इलाज के लिए शहर ले जाओ।’’
वह सोच ही रहा था कि पत्नी ने कहा- ‘‘देखोजी, अब तो कुछ पैसे इकट्ठे मिले हैं, क्यों न किसी अच्छी जगह घूम आएँ।’’
‘‘लेकिन…।’’
वह कुछ कहता, इसके पहले ही पत्नी बोल पड़ी- ‘‘उनको यहाँ लाने से पहले मुझे मेरे मायके छोड़ देना। मैं आखिर कब तक तरसती रहूँगी। उनकी बीमारी के कारण ही आपने मुझे एक बार भी कहीं बाहर नहीं घुमाया… अब बड़ी मुश्किल से चार पैसे हाथ आए हैं तो तुम फिर वही सब…।’’
और वह रो पड़ी।
‘‘अच्छा बाबा, अब चुप भी करो… मैं पिताजी को लिख देता हूँ कि दफ्तर में इमर्जेन्सी ड्यूटी के कारण मैं नहीं आ सकता…।’’
और फिर दोनों पर्यटन के लिए कुल्लू-मनाली चले गए।
एक महीने बाद जब वापस आए तो पिताजी का तीन दिन पुराना संदेश मिला- ‘‘तुम्हारी माँ गुजर गई।’’
……………

इमोशनल पोस्ट
“हलो।”
“हल्लो मम्मी, कैसी हैं आप ?”
“मैं तो ठीक हूं, पर तुम्हें ये क्या सनक चढ़ी है रक्तदान करने की। अभी दो महीने पहले ही ब्लड डोनेट किए थे। और अब फिर से ? क्या हर किसी के बर्थ डे और एनिवर्सरी में रक्तदान करना जरूरी है ?”
“क्या मम्मी आप भी… । ये उसी समय की फोटो है, बस ऐंगल बदल दिया है। फोटोशाप में थोड़ा-सा एडिट कर शर्ट की कलर चेंज कर दिया हूं। आप बिल्कुल भी टेंशन मत लीजिए। लोगों को रक्तदान हेतु प्रेरित करने के लिए मैं फेसबुक में इस प्रकार के इमोशनल पोस्ट करते रहता हूं।”
अब वह पूरी तरह से आश्वस्त हो गई। उसे अपने बेटे पर गर्व भी होने लगा।
……………

वह लड़की
पिछले महीने बस से घरघोड़ा जाना हुआ। बस में मेरे बगल की सीट पर एक दिव्यांग वृद्ध बैठे हुए थे। उन्हें अस्पताल जाना था। अस्पताल बस स्टैण्ड से पहले पड़ता है। वृद्ध ने कंडक्टर से विनम्रतापूर्वक निवेदन किया कि उसे अस्पताल के पास उतार दे। कण्डक्टर ने साफ इंकार कर दिया। बेचारे वृद्ध मन मसोसकर रह गए।
कुछ देर बाद सामने की सीट पर बैठी कालेज की एक खूबसूरत लड़की ने कण्डक्टर से कहा कि वह घर से अपना पेन लाना भूल गई है, इसलिए बस की थोड़ी देर के लिए पेन कार्नर के पास रोक दे।
कण्डक्टर ने उसकी बात सहर्ष मान ली।
बस पेन कार्नर के सामने तब तक रूकी रही, जब तक कि वह लड़की पेन खरीदकर वापस नहीं आ गई।
……………

बोल बम
सावन का महीना था। केसरिया रंग के झण्डे, केसरिया परिधान, कंधे पर काँवर लिए शिव भक्तों का हुजूम चला जा रहा था। ‘बोल बम’ और ‘हर-हर महादेव’ के नारों से आकाश गूँज रहा था। काँवर ढोने वाले शिवभक्त हर बात का जवाब ‘बम’ जोड़कर दे रहे थे।
सड़क किनारे शंकर बाबा एकत्रित सूखी लकड़ियों का गट्ठर उठाने का प्रयास कर रहे थे। उनकी जर्जर काया और गट्ठर का भारी वजन उनके इस प्रयास को बार-बार विफल कर रहे थे।
शंकर बाबा ने काँवरियों को आशा भरी नजरों से देखा। एक दो बार सहायता के लिए आवाज भी दी लेकिन भक्तगण ‘बोल बम’ करते हुए आगे बढ़ गए।
……………

प्राचार्य जी
‘‘शर्मा जी, सटरडे को आप गाँव जा रहे हैं क्या ?’’ प्राचार्य जी ने पूछा।
‘‘जी हाँ सर !’’ मैंने कहा।
‘‘बच्चों की छात्र सुरक्षा बीमा का फार्म डी.ई.ओ. ऑफिस में जमा करवाना है। कल सटर डे है, मार्निग क्लास लगेगी। आप ग्यारह बजे फ्री हो जाएँगे, जाते समय इन्हें जमा करवा देंगे। आपके घर के रास्ते में ही तो डी.ई.ओ. ऑफिस है। ये कम्पलीट है।’’ उन्होंने कहा।
‘‘ठीक है सर जी ! मैं ऐसा ही करूंगा।’’ मैंने कहा।
अगले दिन घर जाते समय मैंने डी.ई.ओ. ऑफिस में फार्म जमा करवा दिये।
सोमवार को प्राचार्य जी को स्कूल में न देखकर मैंने क्लर्क से पूछा तो उसने बताया कि प्राचार्य जी छात्र सुरक्षा बीमा का फार्म जमा करवाने गये और इस काम के लिए वे 350 रूपये का टी.ए., डी.ए. भी एडवांस में निकाल लिए हैं।
……………

दीपक का तेल
‘‘माँ आज दीवाली है न, हम भी अपने घर में दीपक जलाएंगे। ये देखो मैंने दिया भी बना लिया है. अब तुम थोड़ा-सा तेल दे दो।’’ चहकते हुए पाँच वर्षीय रामू बोला।
“हाँ बेटा ये लो तेल की बोतल।” कहते हुए विधवा रामकली तेल की बोतल रामू को थमा दी, जिसमें बड़ी मुश्किल से दो चम्मच तेल रहा होगा।
रामकली की आँखों से आँसू टपक पड़े। आज फिर बिना तेल की सब्जी बनानी पडे़गी।
……………

अपनी-अपनी दिवाली
धनतेरस का दिन था। सब ओर खुशी का माहौल था। बच्चों ने पटाखे चलाने शुरु कर दिए थे। लोग तथाकथित छूट का भरपूर लाभ उठाते हुए नए कपड़े, जूते, चप्पल, गहने, बर्तन आदि खरीदने में मशगुल थे।
पिछले तीन दिनों से बोहनी के इंतजार में अपने ठेले पर उदास बैठा हरिया मोची सोच रहा था कि आज वह अपने इकलौते बैठे रामू को किस बहाने से बहलाएगा क्योंकि पैसों के अभाव में वह अभी तक उसके लिए कुछ भी नहीं खरीद सका है।
अचानक उसे रिक्शे में बंधी लाउडस्पीकर से आ रही आवाज सुनाई पड़ी- “सेठ बाँकेलाल की बेटी को बी पॉजीटिव ग्रूप के खून की तत्काल आवश्यकता है। खून देने वाले को उचित इनाम दिया जाएगा। संपर्क करें- शासकीय चिकित्सालय…।”
हरिया की आँखों में चमक आ गई। अब वह ठेला बंद कर अस्पताल की ओर चल पड़ा।
……………

मेरा भारत महान
स्कूल से आते ही मैंने कहा- ‘‘गोलू बेटे ! परसों दिवाली है। दिवाली पर तुम्हें कौन-कौन से और कितने पटाखे चाहिए ? बाजार से क्या-क्या सामान लाना है ? मम्मी से सलाह करके एक लिस्ट तैयार कर लो।’’
आशा के विपरीत गोलू बोला- ‘‘पापाजी मैं कुछ और सोच रहा हूँ। कल हमारे स्कूल के सभी छात्र-छात्राएँ उरी हमले में शहीदों के परिवार वालों की सहायता के लिए चन्दा एकत्रित कर रहे थे तो मुझे लगा कि क्यों न मैं इस बार दिवाली में पटाखों पर खर्च होने वाली राशि प्रधानमंत्री सहायता कोष में जमाकर दूँ। एक साल यदि मैं बिना पटाखों के ही दिवाली मना लूँ तो क्या फर्क पडे़गा ?’’
उसकी बातों से मुझे जो प्रसन्नता हुई उसका वर्णन शब्दों में नहीं किया जा सकता।
सचमुच ! जिस देश के नौनिहाल ऐसे ऊँचे विचार रखते हों उसका एक पाकिस्तान तो क्या पूरी दुनिया वाले भी मिलकर बाल बाँका नहीं कर सकते।
…………..

सवर्ण
गरीबी और भूख से व्याकुल, बेरोजगारी से परेशान, एक अदद सरकारी नौकरी के लिए एक दफ्तर और दूसरे और फिर तीसरे दफ्तर भटकते-भटकते रामदयाल पाण्डेय अंततः मृत्यु को प्राप्त हुआ।
मृत्यु देवता ने उसके सुकर्मों को देखते हुए कहा- ‘‘पाण्डेय जी आपने पिछले जनम में बहुत अच्छे काम किए हैं। इसलिए आपको फिर से एक बाह्मण परिवार में जन्म लेने का सौभाग्य प्रदान किया जा रहा है।’’
रामदयाल पाण्डेय मृत्यु देवता के पैरों में गिर पड़ा। कातर भाव से बोला- ‘‘मुझे ऐसा सौभाग्य नहीं चाहिए महाराज ! यदि मैंने कुछ अच्छे कर्म किए हैं, तो उसे देखते हुए कृपया मुझे किसी अच्छे खाते-पीते आदिवासी परिवार में जन्म लेने दीजिए ताकि फिर से मुझे बेरोजगारी का सामना करना न पड़े।
……………

आरक्षण
परीक्षा में एक प्रश्न पूछा गया था- ‘‘आरक्षण से आप क्या समझते हैं ?’’
एक परीक्षार्थी ने उत्तर में लिखा था- ‘‘आरक्षण सरकार की वह शक्ति है जिससे वह गधे को घोड़ा और घोड़े को गधा बना सकती है।’’
……………

विडम्बना
‘‘ऊपर वाला जब देता है तो छप्पर फाड़ के देता है’’ और ‘‘समय से पहले तथा भाग्य से अधिक न कभी किसी को मिला है और न मिलेगा।’’ ये बातें सिर्फ कहने सुनने के लिए ही नहीं है। अब रामलाल को ही देख लीजिए।
सरकारी नौकरी की आस लिए अपने जीवन के चौतीस बसंत पार कर चुके एम. एस-सी. प्रथम श्रेणी में पास पी-एच.डी. उपाधिधारक डा. रामलाल चौधरी पिछले दिनों डूबे मन से तथा ‘‘नहीं मामा से काना मामा भला’’ सोचकर के कालेज में भृत्य के पद हेतु आवेदन पत्र भर दिया था। कुछ दिन बाद संविदा सहायक प्राध्यापक की भर्ती के लिए भी आवेदन मंगाया गया। ‘‘जब तक साँस है, तब तक आस है’’ वाली उक्ति को चरितार्थ करते हुए डा. रामलाल ने उसमें भी फार्म भरकर जमा कर दिया।
अप्रत्याशित ढंग से क्रमशः दोनों जगह से साक्षात्कार हेतु बुलावा पत्र रामलाल को मिला। साक्षात्कार आशानुरूप रहा। दोनों ही पदों के लिए उसका चयन हो गया।
परंतु हाय री किस्मत ! सरकार और सरकारी नियमों के कारण डा. रामलाल चौधरी ने सहायक प्राध्यापक की बजाय उसी कालेज में भृत्य के पद पर कार्यभार ग्रहण किया क्योंकि यह पद स्थायी था और एक निश्चित वेतनमान पर नियुक्त था, जबकि सहायक प्राध्यापक का पद संविदा आधार पर था और सालभर बाद फिर से सड़क पर आ जाने का खतरा था।
……………

मजहब
‘‘ये सब कहने की बाते हैं मास्टर साहब। क्या मुहम्मद इकबाल जी ने नहीं कहा था- ‘मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना।’ फिर उन्होंने पाकिस्तान की माँग क्यों की ?’’
उस देहाती अनपढ़ के मुँह से ये बातें सुनकर समझौता कराने आये मास्टर जी वहाँ से खिसक गये और दोनों गुट फिर से आपस में भिड़ गए।
……………

सितारा
‘‘नानी-नानी, आसमान में सितारे कैसे चमकते हैं ?’’ गोलू ने बड़ी मासूमीयत से पूछा।
कुछ सोचकर नानी बोलीं- ‘‘बेटा जो आदमी जितना अच्छा और नेक काम करता है, वह सितारा बनकर आसमान में उतना ही ज्यादा चमकता है।’’
‘‘क्या मैं भी सितारा बन सकता हूँ।’’ गोलू ने पूछा।
नानी बोलीं- ‘‘हाँ-हाँ क्यों नहीं, बिल्कुल बन सकते हो।’’
अब गोलू को सितारा बनने से कोई नहीं रोक सकता क्योंकि उसने निश्चय कर लिया है कि उसे सितारा बनना ही है।
……………

सपना
विद्यालय का वार्षिकोत्सव चल रहा था। सभी बच्चे बहुत प्रसन्न थे। सुबह से शाम तक विभिन्न प्रकार के खेलकूद तथा सांस्कृतिक प्रतियोगिताएँ आयोजित हुए। उसने भी इन सबमें बढ़-चढ़कर भाग लिया था। पुरस्कार वितरण हेतु क्षेत्र के विधायक महोदय पधार चुके थे। एक-एक कर विजेताओं को विधायक जी पुरस्कृत करते जा रहे थे। प्रधानपाठक विजयी छात्रों का नाम पुकारते जा रहे थे। ‘‘और अंत में मैं माननीय विधायक जी निवेदन करूँगा कि वे हमारे विद्यालय के सर्वश्रेष्ठ छात्र को अपने कर-कमलों से शील्ड प्रदान कर सम्मानित करें, जिसने पिछले सत्र की बोर्ड परीक्षा में जिले में प्रथम स्थान प्राप्त करने के साथ-साथ वार्षिकोत्सव में आयोजित विभिन्न प्रतियोगिताओं में से तीन में प्रथम स्थान प्राप्त किया है और उसका नाम है- चुन्नीलाल।’’
उसकी खुशी का कोई ठिकाना न था। वह शील्ड लेने जा रहा था। वह उड़ा जा रहा था। मानो उसके पंख लग गये हो।
तभी किसी के जूते की ठोकर से उसकी आँख खुल गयी। बड़े मालिक बड़बड़ा रहे थे। ‘‘अबे, चवन्नी उठ्ठ, स्साले। कब तक सोता रहेगा। चल जल्दी से रात का बर्तन साफ कर दे। नल भी खुल गया है, फिर पानी भी भरना है।’’
और चुन्नीलाल उर्फ चवन्नी का सपना सपना ही रह गया। वह सोच रहा था काश ! सपने भी सच होते।
……………

घड़ियाली आँसू
राम और रहीम में जमीन को लेकर वर्षों से दुश्मनी चल रही थी। एक दिन अचानक हृदयाघात से राम की मृत्यु हो गई।
राम की शवयात्रा में रहीम को शामिल देखकर लोगों को बड़ा ताज्जुब हुआ। किसी परिचित ने तो पूछ ही लिया- ‘‘आप ! यहाँ कैसे ?’’
रहीम ने कहा- ‘‘दुश्मनी थी तो क्या ? अब, जब दुश्मन ही नहीं रहा, तो दुश्मनी कैसी ?’’
राम के बेटों को सांत्वना देते समय उसकी आँखों से झरझर आँसू बहने लगे।
घर लौटने पर रहीम के बेटे ने उनसे कहा- ‘‘बापू, आप तो बड़े एक्टर निकले।’’
रहीम ने कहा- ‘‘बेटा, आँसू ही तो निकले हैं ना। ये दुख के नहीं खुशी के थे। हमें टक्कर देने वाला तो गया, अब तालाब के किनारे वाली ज़मीन हो गयी हमारी।’’
उनकी हवेली दोनों के ठहाकों से गूँजने लगी।
……………

शिक्षक
परीक्षा में एक प्रश्न पूछा गया था- ‘‘शिक्षक का प्रमुख कार्य क्या है ?’’
एक परीक्षार्थी ने उत्तर में लिखा था- ‘‘घर-घर जाकर सर्वे करना।’’
……………

माँ
जिसके खातिर जिया, जिसे कभी अपने बाप की कमी का अहसास तक होने नहीं दिया। दूसरों के घर झाडू-पोंछा कर अपना पेट काट खिला-पिला कर पढ़ाया-लिखाया जिससे वह इस लायक बन सका कि आज एक अफसर बन कर शहर के एक बड़े आलीशान बंगले में अपनी मार्डन वाईफ के साथ सुखपूर्वक रह रहा है।
वह माँ आज भी दूसरों के घर झाडू-पोंछा कर अपने अफसर बेटे के सुखद जीवन की दुआ करते हुए अंतिम दिन गिन रही है।
……………

चोर कौन ?
बूढ़े रामू काका से मोहल्ले के समाज सुधारक रोहन बाबू ने पूछा- ‘‘जब तुम्हें मालूम हो गया था कि चोरी किसने की थी, तो तुमने थाने में रिपोर्ट क्यों नहीं लिखवायी।’’
‘‘क्या फायदा बाबू ! थाने वाले तो चोर से अपना हिस्सा चोरी होने से पहले ही तय कर चुके थे।’’ वह बोला और आगे बढ़ गया।
……………

राजनीति
एक दिन बिल्ली ने चूहे को पुचकारते हुए कहा- ‘‘तुम नाहक मुझसे घबराती हो। मेरे साथ रहोगे तो मैं तुम्हें खुशहाल बना दूँगी। तुम्हारा घर दूध-दही और माँस-मछली से भर दूँगी।’’
‘‘मैं तुम्हारी राजनीति में नहीं आने वाला हाँ।’’ इतना कहकर चूहा अपने प्राण बचाने झट से बिल में घुस गया।
……………

ज़िंदगी का सफर
पिताजी ने हमेशा समझाया कि जब भी यात्रा करो सामान की सुरक्षा के लिए उसे चैन लगाकर लाक कर दो और चौकस रहो। मैंने हमेशा ऐसा ही करने की आदत डाल ली।
कुछ दिन पहले बस से बनारस गया। बस चलने के कुछ देर बाद ही पाया कि सभी यात्री सो गये हैं। मैंने भी सोना चाहा परंतु बगल की सीट पर बैठी खूबसूरत लड़की के हावभाव ने सोने नहीं दिया। मैंने चाहा कि उससे कुछ बात करूँ कि उसने ही मेरा परिचय पूछ लिया, मैंने सहर्ष उसे अपने बारे में सब कुछ बता दिया। कुछ देर बाद उसने अपने थर्मस से चाय निकाली और मेरी ओर बढ़ाते हुए मुस्कुराकर बोली- ‘‘प्रदीपजी सफर में अनजान लोगों द्वारा दी गई चीज खानी तो नहीं चाहिए, फिर भी यदि आप उचित समझें तो…।’’
मैंने कहा- ‘‘अब हम अनजान कहा है, जिंदगी का सफर अनजान हो तो हो।’’
उसने कहा- ‘‘आप तो कविता करते हैं।’’
मैंने उसकी दी हुई चाय पी ली। थोड़ी ही देर बाद मुझे नींद ने घेर लिया। जब आँख खुली तो मेरे सामान के साथ-साथ कलाई घड़ी और सोने की अंगूठी भी मेरे पास नहीं थी।
अब मैं सोचने लगा पिताजी की दी हुई सीख अधूरी थी या फिर मैंने उसे पूरी तरह से ग्रहण नहीं किया।
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सारा सिस्टम गलत है
पिछले महीने मेरा छत्तीसगढ़ एक्सप्रेस से भोपाल जाना हुआ। रायपुर रेल्वे स्टेशन से ट्रेन अपनी गति से चल पड़ी। साथ ही चल पड़े यात्रियों के ठहाके और बातचीत का कभी न खत्म होने वाला सिलसिला।
एक समूह में आज की स्थिति के बारे में चर्चा चल रही थी। पेट्रोल, प्याज, क्रिकेट, राजनीति, महंगाई और मानवीय मूल्यों पर गंभीर बहस के बाद अब मुद्दा था- भ्रष्टाचार। खिड़की के पास बैठे एक अधेड़ सज्जन कह रहे थे, ‘‘सारा सिस्टम गलत है। देश को बरबाद कर रहे हैं ये अफसर लोग। नीचे से लेकर ऊपर तक सारे भ्रष्ट। हैं। ये अफसरशाही बन्द होनी चाहिए।’’
अभी इनका लेक्चर चल ही रहा था कि टिकिट चेकर आ गया। सभी अपनी-अपनी टिकिट दिखाते गए। जब उन सज्जन की बारी आई तो उन्होंने जेब से एक मुड़े-तुड़े सौ रुपये का नोट टिकिट चैकर को थमा दिए और वे भी बिना कुछ बोले यंत्रस्थ भाव से आगे बढ़ गए।
अब वे सज्जन शांत भाव से बाहर का प्राकृतिक सौंदर्य निहारने लगे।
मैं सोचने लगा कि सिस्टम कैसे गलत होता है ?
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उपहार
आफिस से लौटते ही मैंने कहा- ‘‘गोलू बेटे ! कल आपका जन्मदिन है। कल आप पूरे बारह साल के हो जाओगे। इस बार आपको पापाजी से उपहार में क्या चाहिए ? बाजार से क्या-क्या सामान और कितना लाना है, मम्मी से सलाह करके लिस्ट तैयार कर लो।’’
आशा के विपरीत गोलू गंभीरतापूर्वक बोला- ‘‘पापाजी मैं कुछ और ही सोच रहा हूँ। कल हमारे स्कूल के सभी विद्यार्थी उरी में शहीद हुए सैनिकों के परिजनों की सहायता के लिए चन्दा एकत्रित कर रहे थे तो मुझे लगा कि क्यों न मैं अपने जन्मदिन की पार्टी में खर्च होने वाली राशि इसमें दे दूँ। वैसे भी सब कुछ तो है मेरे पास। और एक साल अपना जन्मदिन पहले की तरह न भी मनाऊँ, तो क्या फर्क पड़ेगा ?’’
उसकी बातों से मुझे जो प्रसन्नता हुई, उसका वर्णन शब्दों में नहीं किया जा सकता। सचमुच जिस देश के नैनिहाल ऐसे ऊँचे विचार रखते हों, उसका एक पाकिस्तान तो क्या पूरी दुनिया वाले मिलकर भी बाल तक बाँका नहीं कर सकते।
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वेलेंटाइन डे
“हेलो…”
“कैसी हो जानू ?”
“मैं ठीक हूं, आप आ रहे हैं न आज ?”
“सॉरी मेरी जान ! एक जरूरी मिटिंग अटैंड करनी है। मैं परसों लौटूंगा। आज की टिकट कैंसिल करानी पड़ी।”
“पर आप तो आज आने वाले थे। फिर ये मिटिंग वह भी यूं अचानक…. ?”
“सॉरी डियर। मैं समझ सकता हूं तुम्हारी स्थिति। मजबूरी है वरना शादी के बाद पहली वेलेंटाइन डे पर हम यूं दूर नहीं होते। अच्छा ये बताओ, वेलेंटाइन डे पर मेरी भिजवाई डायमंड नेकलेस वाली गिफ्ट तुम्हें कैसी लगी ?”
“खोला नहीं है मैंने अब तक। सोच रही थी तुम्हारे सामने ही खोलूंगी। पर…”
“सॉरी यार मधु। देखो मेरी मजबूरी समझने की कोशिश करो। अच्छा परसों मिलते हैं। अब फोन रखता हूं। बाय, लव यू डार्लिंग। ऊं… आं…”
उधर से फोन कट गया। उसकी नई खूबसूरत स्टेनो जो सज-धज कर आ गई थी। वह बिना देर किए उस नवयौवना के कमर में हाथ में डालकर शॉपिंग कराने ले गया।
“मेमसाहब, आज आधे दिन की छुट्टी चाहिए थी।” इधर दोनों हाथ जोड़े ड्राईवर खड़ा था।
“क्यों ?”
“ऐसे ही मालकिन कुछ काम है।”
“कुछ काम है मतलब ? क्यों चाहिए छुट्टी ?”
“वो क्या है ना मैडमजी, हमारी शादी के बाद की आज 25 वीं वेलेंटाईन डे है और हम पति-पत्नी … आज… पिक्चर देखने जाना चाहते हैं.” बहुत मुश्किल से कह सका।
उसकी मनोदशा और पच्चीस साल बाद भी अपनी पत्नी के प्रति प्रेमभाव को देख वह भला कैसे मना कर सकती थी.
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चिल्हर
पिछले महीने रायगढ से सरगुजा बस में सफर करते हुए जाना हुआ। अभी बस में चढे हुये पांच मिनट भी नहीं हुये कि कण्डक्टर साहब ने मुझसे पूछा- ‘‘आपको कहां का टिकट दूँ ?’’
‘‘जी सरगुजा का” मैंने कहा और उसकी ओर पचास-पचास के दो नोट बढ़ा दिए।’’
उसने पंचानबे रुपए के टिकिट मेरी ओर बढ़ा दिए और आगे बढ़ गया। मैंने टोका- ‘‘मेरे बाकी के पांच रुपए भी तो दे दीजिए।’’
‘‘चिल्हर होती तो दे न देता। आप लोगों को साथ में चिल्हर पैसे लेकर चलना चाहिए। मैं सबको कहां से चिल्हर पैसे बांटता फिरूंगा।’’ लगभग डांटते हुए उसने कहा.
मुझे ऐसा लगा कि चिल्हर पैसे न रखकर जैसे मैंने बहुत बड़ी गलती कर दी। मुझे खुद पर थोडी शर्म भी आयी। सही तो कह रहा हैं ये. आखिर कहां से लाये ये सबके लिये चिल्हर नोट.
थोड़ी देर बाद एक नई सवारी ने बस में प्रवेश किया तो टिकट को लेकर कण्डक्टर की ऊँची आवाज सुनाई दी- ‘‘बाबाजी, एक रुपए और निकालो।’’
‘‘माई-बाप ! मेरे पास अब एक भी पैसा नहीं है।’’ उस मैले कुचैले कपड़े वाले बुजुर्ग बाबाजी ने कहा। ‘‘देखो, मेरे साथ तुम्हारी ये सब नाटकबाजी नहीं चलेगी। एक रुपए दे दोगे तो ठीक है, नहीं तो मोहनपुर की जगह सोहनपुर में ही उतार दिए जाओगे। यह बस है खैरात का अड्डा नहीं।’’ कण्डक्टर ने फरमान जारी कर दिया।
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होटल में फोटो सेशन
वैसे तो मुझे होटल में खाना पसंद नहीं है पर बच्चों की इच्छा का ध्यान रखते हुए हम अपने परिवार के सभी सदस्यों के जन्म दिवस पर होटल खाना खाने चले जाते हैं। संयोग ऐसा है कि हम चारों के जन्म दिन में भी तीन-चार माह का अंतराल है। सो हर तीसरे-चौथे महीने ही जाना होता है।
अभी पिछले सप्ताह श्रीमती जी के जन्मदिन पर अपने वही चिर-परिचित होटल में जाना हुआ। इस बार वहाँ कुछ ज्यादा ही चहल-पहल दिखा। जब हमारे आर्डर का पूरा खाना आ गया तो एक बहुत ही स्मार्ट-सा लड़का, जो गले में एक लेटेस्ट मॉडल का बहुत ही महंगा कैमरा लटकाए हुए था, अभिवादन करके बोला- “सर अब फोटो सेशन हो जाए।”
चौंक पड़े हम। आश्चर्य के साथ गुस्सा भी आया। पूछा- “क्यों, किसने कहा तुम्हें फोटो सेशन के लिए।”
वह बड़े ही प्यार से बोला :- “सर जी प्लीज, आप नाराज मत होइए। मैं इस होटल का फोटोग्राफर हूँ। यहाँ आने वाले ग्राहकों की फोटो उनकी इच्छानुसार ही खींचकर उन्हें ई-मेल या व्हाट्सप करता हूँ। उसके बाद उनके सामने ही फोटो डिलीट कर देता हूँ। इसे ग्राहक अपनी इच्छानुसार फेसबुक, इंस्टाग्राम या व्हाट्सप पर शेयर करते हैं। सर जी फोटो खींचना ही मेरी ड्यूटी है और इसके लिए ग्राहकों से कोई एक्स्ट्रा चार्ज नहीं लिया जाता है। मुझे होटल से मासिक वेतन मिलता है।”
तब तक होटल का मैनेजर भी आ गया, जो मुझे पहले से ही जानता है। हाथ जोड़ कर बोला- “सर जी, ये सर्विस हमने पिछले महीने ही शुरु की है। होटल में ये चहल-पहल उसी का ही परिणाम है। डेढ़ महीने में ही हमारी बिक्री दुगुनी हो चुकी है।”
हम आश्वस्त हुए- “ये तो अच्छी पहल है मैनेजर साहब। चलिए, फिर हमारा भी फोटो सेशन हो जाए।”
मैनेजर बोला :- “जरूर-जरूर।”
मौके का फायदा उठाते हुए हमने भी कुछ फोटो खिंचवा लिए।
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फ़र्क तो पड़ता है
दौड़ते-भागते शर्मा जी जैसे ही ऑफिस पहुँचे डायरेक्टर के मुंहलगे चपरासी ने उन्हें बताया- “सर ने आपको आते ही मिलने के लिए कहा है.”
डरते-डरते जैसे ही वे कैबिन में घुसे, डायरेक्टर साहब एकदम से बरस पड़े- ” शर्मा जी, इससे पहले कि आप एक नई कहानी सुनाएँ, मैं अपको स्पष्ट कह देता हूँ कि आप आज आराम करिए. छुट्टी का एप्लीकेशन दीजिए और जितनी समाजसेवा करनी है, कीजिए. तंग आ चुका हूँ मैं आपकी परोपकार कथा सुन-सुनकर. क्या फ़र्क पड़ता है आपकी समाजसेवा से ? यदि नौकरी करनी है तो ढंग से कीजिए.”
शर्मा जी डायरेक्टर साहब के आदेशानुसार उस दिन की छुट्टी का एप्लीकेशन देकर ऑफिस से बाहर आकर सोचने लगे- “अभी से घर जाकर क्या कर लूँगा. क्यों न हॉस्पीटल जाकर उस बच्चे की हालचाल पता कर लूँ, जिसे किसी दुर्घटना के कारण सड़क में पड़े हालत में देखकर अस्पताल पहुँचाने के चक्कर में ऑफिस देर से पहुँचा और साहब की डाँट खाई. शायद अब तक उसे होश भी आ गया हो.” अनायस ही उनके कदम अस्पताल की ओर चल पडे. जैसे ही वे अस्पताल पहुँचे, डॉक्टर ने उन्हें बताया कि बच्चे को होश आ गया है और उसके मम्मी-पापा भी आ चुके हैं.
“आइए, आपको मिलवाता हूँ उनसे… इनसे मिलिए, शर्मा जी, जिन्होंने आज सुबह आपके बच्चे को यहाँ एडमिट कराया है. यदि समय पर ये बच्चे को यहां नहीं लाते और अपना ब्लड नहीं दिये होते, तो कुछ भी हो सकता था.”
“सर आप… ? ये आपका बेटा…?”
सामने डायरेक्टर साहब थे, हाथ जोड़कर खड़े. काटो तो खून नहीं. बोले- “शर्मा जी, हो सके तो मुझे माफ कर दीजिएगा. मैंने आपको बहुत गलत समझा पर अब मैं जान चुका हूँ कि फ़र्क तो बहुत पड़ता है आपकी समाजसेवा से.”
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क्रिकेटफैन फैमिली
बचपन से क्रिकेट के लिए पागलपन की हद तक दीवानी है कुसुम. आईपीएल, टी-ट्वेंटी, वन डे या टेस्ट, क्रिकेट का कोई भी मैच हो, सारा काम-धाम, पढाई-लिखाई छोड़कर चिपक जाती थी टी.व्ही. पर. वह परीक्षा की तैयारी उस तत्परता से कभी नहीं करती थी जैसी कि क्रिकेट मैच देखने की करती. बिस्किट, चिप्स, कुरकुरे, चना, मुर्रा, चाय, कोल्ड ड्रिंक्स सब कुछ पहले से ही तैयार. कौन-सा मैच किन-किन सहेलियों के साथ देखना है यह भी बी.सी.सी.आई. द्वारा टाइम टेबल जारी होते ही कुसुम तय कर लेती थी. मम्मी-पापा और दादी माँ को पहले ही बता देती थी कि जो भी काम है, मैच शुरू होने से पहले करा लीजिए, वरना मैच के बीच वह कुछ भी नहीं कर पाएगी. मम्मी-पापा और दादी माँ परेशान थे कि “यहाँ तो ये सब चल जाएगा, पर ससुराल में क्या करेगी ये लड़की.”
समय का पहिया चलता रहा. जवानी की दहलीज पर पहुँचते ही उसी शहर में अच्छा घर-वर देख कर उसकी शादी कर दी गई. अब कुसुम क्या करे ?
शादी के महीने भर बाद ही चैम्पियंस ट्रोफी, उसमें भी पहला ही मैच पाकिस्तान के साथ. ऊपर से सन्डे का दिन. सास-ससुर, पति, ननद सब घर में ही रहेंगे. कुसुम परेशान. पाँच दिन पहले ही मायके से लौटी है, सो वहाँ भी नहीं जा सकती.
पर ये क्या ?
ससुर जी सुबह-सुबह सबको हाल में बुलाकर समझा रहे थे. “देखो, जैसाकि तुम सब लोग जानते ही हो कि आज से चैम्पियंस ट्रोफी शुरू हो रही है और ये लगभग हफ्तेभर चलेगा. आज पहला ही मैच भारत-पाकिस्तान का है. सो मैच के पहले ही तुम सब अपने-अपने काम-काज निपटा लिया करो. राजेश, तुम बाजार से ढेर सारे बिस्किट, चिप्स, कुरकुरे, कोल्ड ड्रिंक्स वगैरह ले आए रहना. बहू, तुम्हारी कुछ स्पेशल च्वाइस हो तो राजेश को नोट करा देना, और हाँ बहू, तुम दस-बारह कप चाय बनाकर थर्मस में रख लेना. खाना लंच ब्रेक में बन जाना चाहिए. इसके लिए मालती, तुम अपनी भाभी के साथ किचन में लग जाना. मैच के बीच में कोई किसी को काम के लिए आदेश करे, ये मैं बर्दाश्त नहीं करूंगा. हम सब एक साथ मैच का मजा लेंगे. इस बार तो हमारी बहू भी साथ ही रहेगी. क्यों दीपा, क्या ख़याल है तुम्हारा ?”
“जी हां, आप बेवजह टेंशन ना लें, हम सब व्यवस्था कर लेंगे. बेटा राजेश, हो सकता है कि तुम्हारे सास-ससुर और दादी सास भी आएँ, साथ में मैच देखने को. शादी के बाद पहला मैच है बहू की ससुराल में. सो कल शाम को ही मैंने फोन कर के बुला लिया है उन्हें. इसलिए तुम कुछ सुगर-फ्री मिठाई भी लेते आना. ठीक है. चलो, अब लग जाओ सब अपने-अपने काम में.” सासू माँ बोल रही थीं.
कुसुम को सपने जैसा ही लग रहा था.
काश ! उसके मम्मी-पापा और दादी माँ भी ये बात सुन ली होतीं. अब वह पापा का नंबर डायल कर रही थी.
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सहयोग आधारित संकलन
साहित्य सेवा का नाम देकर सहयोग आधारित संकलन निकालने के नाम पर हो रही उगाही से दुखी दो वरिष्ठ साहित्यकार गंभीर चर्चा कर रहे थे.
पहला :- “हद है यार, आजकल जिसे देखो वही सहयोग के आधार पर संकलन निकालने में व्यस्त है. साहित्य के नाम पर कुछ भी लिखवाकर हजार-पंद्रह सौ रुपए सहयोग राशि ले संकलन निकाल लिए. ऊपर से ये फेसबुक, विज्ञापन दिए नहीं कि पंद्रह-बीस स्वयंभू धनपति लेखक संकलन में शामिल होने को उतावले बैठे ही हैं. बस चल गई दुकान.
दूसरा :- और इसका सबसे ज्यादा फ़ायदा उठा रहे हैं प्रकाशक. वैसे भी आजकल के ज्यादातर प्रकाशक खुद ही तथाकथित साहित्यकार हैं. अब सम्पादक भी बन जा रहे हैं. जो ये नहीं कर पा रहे हैं, वे पड़ोसी या जान-पहचान के साहित्यकारों से सम्पादन करा रहे हैं.
पहला :- एकदम सही कह रहे हो आप. पर हम कर ही क्या सकते हैं ?
दूसरा :- पर यूं हाथ पर हाथ धरे बैठ भी तो नहीं सकते ?
पहला :- हां ये भी सही कह रहे हैं आप ? कुछ सोचा है कि क्या करना है ?
दूसरा :- मुझे लगता है कि हमें निस्वार्थ भाव से सौ नए साहित्यकारों को आगे बढ़ाने के उद्देश्य से बिना किसी सहयोग राशि लिए एक संकलन का प्रकाशन करना चाहिए. अब सहयोग राशि नहीं लेंगे तो स्वाभाविक है कि लेखकीय प्रति देना संभव नहीं होगा. सौ नग डेढ़ सौ पेज की पुस्तक की प्रिंटिंग कास्ट लगभग पंद्रह-सोलह हजार रुपये आएगी. अब नए साहित्यकार होंगे तो स्वाभाविक है कि कम से कम एक प्रति पुस्तक तो खरीद ही लेंगे. यदि कीमत ढाई सौ रुपये भी रखा जाए और अस्सी लेखक एक-एक प्रति भी खरीद लें, तो बीस हजार रूपए बन ही जाएँगे. मतलब कोई नुकसान तो होगा नहीं.
पहला :- बिलकुल सही कह रहे हैं आप. और फिर हम किसी को मजबूर तो करेंगे नहीं कि रचना भेजो या किताब खरीदो.
दूसरा :- तो फिर ये तय रहा कि हम इस प्रकार निस्वार्थ भाव से सौ नए साहित्यकारों को लेकर एक संकलन निकालेंगे.
पहला :- जरूर. शुभष्य शीघ्रम. मैं अभी फेसबुक में इसके प्रचार के लिए पोस्ट जारी कर देता हूँ. देखिये मना मत करिएगा, सम्पादक तो आप ही रहेंगे.
दूसरा :- ठीक है अब आप इतना आग्रह कर रहे हैं तो मैं आपको मना तो नहीं कर सकता न.
फिर क्या था कुछ ही समय में लाइक-कमेंट्स शुरू हो गए.
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कन्यादान
फोन कटते ही निर्मला सोफे में धम्म से बैठ गई। उसके कानों में अब भी होने वाली बहू नेहा के एक-एक शब्द गूंज रहे थे। “एक मां अपने बच्चे के लिए अपशकुनी कैसे हो सकती है आंटीजी ? पांच साल की थी मैं, जब मेरे पिताजी की एक सड़क दुर्घटना में मौत हो गई। एक बार भी झांक कर नहीं देखा मेरे चाचा-चाची ने कि हम दोनों मां-बेटी कैसे जी रही हैं और आज वे किस हक से मेरा कन्यादान करेंगे ? मेरी मां जो मेरे लिए पिता भी हैं, पिछले बीस सालों से ठीक से सोई नहीं, ताकि मेरी किस्मत न सो जाए। दिनभर दूसरों के घरों में झाड़ू-पोंछा और देर रात तक जाग-जाग कर सिलाई-कढ़ाई की और मुझे पढ़ाया लिखाया जिससे कि मैं आज यूनिवर्सिटी में लेक्चरर बन सकी हूं। बदले में मेरी मां, आज यदि पैंतालीस की उम्र में पैंसठ की दीख रही हैं, तो सिर्फ मुझे पाल-पोष कर बड़ा करने की खातिर । आंटी जी, मेरी मां मेरे लिए भगवान से भी बढ़कर है और मेरी दिली इच्छा है कि वही मेरा कन्यादान करें। आशा है आप मुझे निराश नहीं करेंगी।”
निर्मला एक बार फिर 25 साल पीछे चली गई जब उसकी शादी हो रही थी। तब वह चाहते हुए भी कुछ नहीं कर सकी थी और उसका कन्यादान उसके चाचा-चाची ने किया। उसकी मां घर के एक कोने में बैठ कर आंसू बहाती रही।
‘नहीं, नहीं। नेहा के साथ ऐसा नहीं होगा। नेहा का कन्यादान उसकी मां ही करेंगी। लोग क्या कहेंगे, उसकी परवाह मैं क्यों करूं। पच्चीस साल पहले तो मैं कुछ नहीं कर सकी, लेकिन आज पीछे नहीं रहूंगी।’
“हेलो… नमस्कार समधन जी। मैं निर्मला बोल रही हूं।… जरूरी बात करनी है आपसे। ध्यान से सुनिए मेरी बात।…. कल आपसे हमने कहा था कि शादी में हमारी कोई डिमांड नहीं है, पर आज मैं आपसे एक जरूरी डिमांड कर रही हूं। आशा है आप मुझे निराश नहीं करेंगी। …. देखिए डरिए मत। मैं कोई ऐसी वैसी डिमांड नहीं कर रही हूं।…. मेरी और मेरी होने वाली बहू दोनों की दिली इच्छा है कि नेहा का कन्यादान आप ही करें।…. आप ज्यादा मत सोचिए…. हां …. हां…. यदि आप नहीं मानेंगी तो मैं नेहा बिटिया की सास ही बन कर रह जाऊंगी, मां कभी नहीं बन सकूंगी।…. जी…. जी…. ठीक है। रखती हूं फोन। बाय।”
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भाभी की नफ़रत और भैया का प्यार
नेहा ने अपने भैया के यहाँ फोन किया. आशा के अनुरूप फोन उसकी भाभी ने ही उठाया- “नमस्ते भाभीजी, कैसी हैं आप ?”
भाभी ने शब्दों में मिश्री घोलते हुए कहा- “अच्छी हूँ नेहा. तुम कैसी हो ?”
नेहा- “मैं भी अच्छी हूँ भाभीजी, एक बात पूछनी थी आपसे, इसलिए फोन लगाया है. क्या मेरी भेजी हुई राखी आपको मिल गई हैं ?”
भाभी- ” नहीं तो, अभी तक तो नहीं मिली है.”
नेहा- “कोई बात नहीं भाभीजी, अगर कल तक नहीं मिली तो भैया को राखी बाँधने के लिए मैं खुद ही आ जाऊँगी रक्षाबंधन के दिन.”
भाभी- “हाँ-हाँ ज़रूर, मैं कल फोन कर बताती हूँ तुम्हे.”
वह सोचने लगी कि इस बार रक्षाबंधन का त्यौहार सोमवार को है, मतलब तीन दिनों की छुट्टी. यदि नेहा यहाँ आ गई तो बेकार हो जाएगी तीन दिनों की छुट्टी. अगले दिन ही नेहा के पास भाभीजी का फोन आ गया- “नेहा, तुम्हारी भेजी हुई राखी अभी थोड़ी देर पहले ही कोरियर वाला दे गया है. अच्छा है मिल गया, वैसे तुम्हारे भैया इस फ्राईडे को कहीं टूर पर जाने की बात कह रहे थे.’’
नेहा- ‘‘ठीक है भाभीजी, अब मैं निश्चिन्त हो गई कि मेरी राखी पहुँच गई.’’
नेहा ने तो भाभीजी से उस राखी के मिलने की बात कही थी, जो उसने पोस्ट ही नहीं की थी. वह तो बस ये देखना चाहती थी कि पिछले सालभर में वह कुछ बदली भी हैं या अब भी वैसी की वैसी ही हैं. अब वह भाभीजी को कैसे समझाए कि भैया टूर के बहाने अपने सभी भाई-बहनों के साथ रक्षाबंधन के दिन अपने गाँव जाने वाले हैं.
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अंध-भक्ति
सुबह के चार बजे का समय रहा होगा. समारू काका की नींद खुल गई. उन्हें जोर का प्रेशर आया हुआ था. गाँव के अन्य लोगों की भाँति उनके घर में भी शौचालय नहीं था, सो उन्हें गाँव के बाहर स्थित खेत और तालाब पर ही निर्भर रहना पड़ता था.
वे तेज कदमों से सँभलते और लगभग दौड़ते हुए तालाब की ओर भागे. बहुत कोशिश के बाद भी वे खेत तक नहीं पहुँच सके और गाँव के अंतिम छोर पर स्थित बुधरू काका के घर के आगे बैठ गए.
अभी अन्धेरा था. किसी ने भी नहीं देखा, यह तसल्ली थी उनके मन में. पूरी तरह से निवृत्त होने के बाद उन्हें लगा कि सुबह होते ही इधर से गुजरने वाला हर आदमी उसे पानी पी-पीकर कोसेगा.
उन्होंने अगल-बगल देखा. कोई आदमी नहीं दिखा. पास में ही उन्होंने देखा कि सुभाष पटेल ने घर के नीँव में डालने के लिए कुछ पत्थर मंगवाए हैं. समारू काका ने वहां से चार पत्थर लाकर मल के ऊपर डाल दिया, ताकि उसे कोई देख न सकें.
ऐसा करते हुए बलराम ने उसे देख लिया. बलराम ने भी सुभाष के घर के सामने से दो पत्थर लाकर उसके ऊपर रख दिया. बलराम की देखा-देखी रामू, श्यामू, दीना, जगत काका ने भी दो-दो पत्थर डाल दिए.
उधर से नहा-धोकर लौट रहे पंडित जी ने पत्थरों के ढेर में थोड़ा-सा सिंदूर डाल कर पानी डाल दिया. उसी समय समारू काका तालाब से नहा धोकर लौटते समय पंडित जी को वहां पूजा करते देख चौंक पड़े. पंडित जी बता रहे थे- “आज मेरे सपने में देवी माँ आई थीं. उन्होंने कहा था कि गाँव के ठीक बाहर मेरी स्थापना कर मंदिर बनाओ, नहीं तो गाँव में मुसीबतों का पहाड़ टूट पडेगा. अब देखो, आज सुबह जब मैं यहाँ पहुंचा, तो देवी माँ सामने ही दिख गईं. अब तो यहाँ मंदिर बन कर रहेगा.”
श्रद्धालु मंदिर निर्माण के लिए मुक्त-हस्त दान कर रहे थे.
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फेसबुक का कमाल
उनकी गिनती राज्य के तेज़तर्रार युवा आई.ए.एस. अफसरों में होती थी। कुछ साल पहले की ही बात है। उनकी पोस्टिंग राजधानी के किसी ऑफिस में मैनेजिंग डायरेक्टर के पद पर थी। किसी बात पर उनकी अपने विभागीय मंत्री से ठन गई। मंत्री जी ने उन्हें देख लेने की धमकी दी थी।
इस टकराव का परिणाम भी जल्दी ही दिख गया। सप्ताह भर के भीतर ही उनका ट्रांसफर राज्य के एक घोर नक्सल प्रभावित जिले में जिला पंचायत सी.ई.ओ. के पद पर हो गया।
उस अफसर ने अपने स्तर पर विभागीय सचिव और राज्य के मुख्य सचिव से मिलकर ट्रांसफर रुकवाने की भरसक विनती की। बीमार मां और गर्भवती पत्नी के उपचार की दुहाई भी दी, पर ट्रांसफर नहीं रुका।
अनमने ढंग से उन्होंने नई जगह पर विधिवत कार्यभार ग्रहण कर लिया। उन्हें हमेशा अपनी बीमार मां और गर्भवती पत्नी की चिंता लगी रहती थी। मां और गर्भवती पत्नी का चिंतित होना स्वाभाविक है, क्योंकि नक्सल प्रभावित इलाकों में ड्यूटी करना आसान नहीं होता है।
एक दिन उस युवा अफसर को पता नहीं क्या सूझा, कि उसने फेसबुक पर एक धर्मगुरु के संबंध में कुछ प्रतिकूल टिप्पणी लिख दी।
फिर क्या था, देखते ही देखते वह पोस्ट सोशल मीडिया में वायरल हो गया। प्रदेश ही नहीं देशभर में बहस छिड़ गई। सत्ता पक्ष और विपक्ष सड़क पर आमने-सामने आ गए। नगर बंद, शहर बंद की बातें होने लगी थी। न्यूज़ चैनल वाले भी बिजी हो गए थे। उन्हें बैठे-बिठाए बहस का एक मुद्दा जो मिल गया था।
राज्य के माननीय मुख्यमंत्री जी के निर्देश पर देर रात उस अधिकारी का ट्रांसफर आदेश जारी कर दिया गया। उन्हें मंत्रालय में अटैच कर दिया गया था।
इस प्रकार उनकी राजधानी में वापसी हो गई।
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लाईक एंड कामेंट्स
रात के लगभग साढ़े ग्यारह बजे रामलाल जी का हृदय गति रुकने से देहांत हो गया। उनका बड़ा बेटा शंकरलाल गांव से सैकड़ों मील दूर एक शहर में अफसर था। छोटे बेटे भोलाराम ने तुरंत पिताजी की मृत्यु की सूचना मोबाइल के जरिए दे दी।
पिताजी की मृत्यु की सूचना पाकर बड़ा बेटा शंकरलाल दाह संस्कार में शामिल होने के लिए तुरंत सरकारी गाड़ी से रवाना हो गया। लाख कोशिशों के बावजूद शंकरलाल दोपहर एक बजे के पहले गांव नहीं पहुंच सकता था। परंपरा के मुताबिक रात को दाह संस्कार नहीं किया जा सकता, साथ ही किसी भी घर में लाश पड़े रहने पर न तो चूल्हा जला सकते हैं, न ही खाना खा सकते हैं।
समस्या गंभीर थी। उस पर भोलाराम ने स्पष्ट कह दिया था कि जब तक भैया नहीं आएंगे, डेड बाडी नहीं उठाया जाएगा। बड़े भाई होने के नाते मुखाग्नि देने का पहला हक शंकरलाल का ही था और वे यहां पहुंचने के लिए रवाना भी हो चुके थे।
भूखे-प्यासे गांव वाले शंकरलाल के पहुंचने की राह देख रहे थे। सब यह मानकर चल रहे थे कि डेढ़ बजे तक वे यहां पहुंचेंगे, एक आध घंटा रोना-धोना चलेगा। दो-ढाई बजे से शवयात्रा निकाली जाएगी और तब घरों में चूल्हा जलेगा।
आशा के अनुरूप शंकरलाल एक बजे ही पहुंच गया। पर ये क्या ? रोना-धोना तो दूर, चेहरे पर शिकन तक नहीं। उसने अपने लेटेस्ट स्मार्टफोन से डेड बाडी की आठ-दस फोटो लिए और अपने छोटे भाई भोलाराम से कहा, “यदि पूरी तैयारी हो चुकी है तो जल्दी से शवयात्रा निकाली जाए।”
फिर उसने अपने भतीजे को बुला कर कहा, “बेटा, अभी जब शवयात्रा निकाली जाएगी, तब तुम हर एंगल से अच्छे से कुछ फोटो ले लेना। स्पेशली जब मैं पापाजी को मुखाग्नि दूंगा, तब की। और हां, मोबाइल ज़रा संभल के चलाना। बहुत महंगा है।”
डेढ़ बजे से कुछ पहले ही परंपरा के अनुसार शवयात्रा निकाली गई। गांव वालों ने भी राहत की सांस ली। मुखाग्नि देने के बाद तुरंत ही शंकरलाल ने भतीजे से अपनी मोबाइल ले खींचे गए फोटो देखने लगा। भतीजे की फोटोग्राफी देख कर वह बहुत संतुष्ट लग रहा था।
अब लोग अलग-अलग समूहों में चिता शांत होने की प्रतीक्षा कर रहे थे। कोई समूह व्यापार, तो कोई राजनीतिक चर्चा में मगन था, तो कुछ लोग अपने-अपने मोबाइल में गेम खेल रहे थे या फिर चैटिंग कर रहे थे।
उधर पिता की चिता जल थी, इधर शंकरलाल फेसबुक में फोटो एडिट कर पोस्ट करने में बिजी था।
चिता बुझते तक शंकरलाल संतुष्ट हो गया था क्योंकि घंटे भर में ही नौ सौ लाईक और पांच सौ कामेंट्स आ चुके थे। श्मशान घाट से लौटते समय वह साथ चल रहे लोगों को बड़े गर्व से बता रहा था कि अब तक एक हजार लाईक मिल चुके हैं।
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फिल्म हिट करने का फार्मूला
“200 करोड़ की लागत से बनने वाले फिल्म के बजट में कलाकारों के लिए 25, सेट के लिए 25, डायरेक्टर के लिए 05, राइटर के लिए 30 और अन्य खर्चों के लिए 15 प्रतिशत। ये क्या है सर ? आपकी तबीयत तो ठीक है न ?” डायरेक्टर ने पूछा।
“एकदम दुरुस्त है। क्यों पूछ रहे हो ऐसे ?” फायनेंसर ने कहा।
“सर जी, अभी तक किसी भी फिल्म के लिए राइटर को शायद ही एक प्रतिशत राशि मिला हो और आप उसे 30 प्रतिशत देने जा रहे हैं ?”
“देखो बंधुओं, काम करने का मेरा अपना अलग ही स्टाइल है। फिल्म सीता, उर्मिला, मंदोदरी, सावित्री या लक्ष्मीबाई जैसे किसी ऐतिहासिक किरदार पर आधारित होगा। पर ध्यान रहे किरदार हिंदू धर्म से ही संबंधित हो, वरना वह लांच ही नहीं हो सकेगा। इस फिल्म के लेखक एक या दो नहीं, बल्कि सैकड़ों लोग होंगे। फिल्म के वास्तविक लेखक को एक प्रतिशत राशि ही दी जाएगी। बाकी 29 प्रतिशत देश-विदेश के नामी गिरामी लेखकों और पत्रकारों को दी जाएगी, जो फिल्म के लांच होने के बहुत पहले ही उल्टी-सीधी बातें लिख कर उसका इतना प्रचार-प्रसार कर देंगे, कि वह लांचिंग के पहले हफ्ते ही हजार करोड़ रुपए का बिजनेस कर ले।”
“वाह ! मानना पड़ेगा सर जी आपके दिमाग को। क्या दूर की सोच रखते हैं।”
“तो ठीक है फिर, लेखक महोदय आप अपने पर काम आज से ही, बल्कि अभी से लग जाइए और आप सभी लोग अपने-अपने परिचित लेखकों और पत्रकारों को इस फिल्म के प्रचार-प्रसार के लिए कहते रहेंगे। ठीक है। एनी डाउट ?” फायनेंसर ने कहा।
“नो सर।” सबने एक स्वर में कहा।
“ठीक है फिर अगले हफ्ते इसी दिन इसी समय इसी जगह मिलते हैं। तब तक हमारे लेखक महोदय किरदार और स्टोरी की मुख्य बातें तय कर लेंगे।” फायनेंसर ने कहा।
“जी सर जी। हो जाएगा।” लेखक महोदय ने कहा।
“ठीक है। अब आप सभी जा सकते हैं।” फायनेंसर ने मीटिंग समाप्ति की घोषणा कर दी।
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संस्कृति के रक्षक
“देखो, ये पैसे की धौंस कहीं और दिखाना। साफ-साफ बताओ… किस कलमुंही के पास गए थे मुंह…? इतने पैसे और ये नई ड्रेस … ? कहां से मिले तुम्हें ?”
“देखो, विश्वास करो मुझ पर। मैंने कोई भी गलत काम नहीं किया है। कई और लोग भी गए थे मेरे साथ। तुम चाहो तो उनसे भी पूछ …”
“विश्वास…? तुम सारे मर्द जात…? कौन हैं ये कलमुंही भारती… संस्कृति… और ये करमजली पद्मावती, जो मर्दों पर यूं ही पैसे-कपड़े लुटा रही हैं ? बोलो ? जवाब क्यों नहीं देते ?”
“धीरे बोल भागवान, धीरे बोल। कल फिर से जाऊंगा। तुझे भी साथ में ले जाऊंगा। दोनों के डबल पैसे मिलेंगे।”
“छी: छी: नासपीटे। शरम नहीं आती तुझे। अपनी बीबी से धंधा कराएगा तू। देखती हूं तुझे कैसे ले जाता है मुझे।”
“चुप…, चुप साली। सुनती-समझती है नहीं। कुछ भी बोले जा रही है।”
“और भी कुछ सुनाना बाकी है क्या ?”
“देखो रानी, तीन दिन से कोई काम-धाम तो मिल नहीं रहा था। चावड़ी में आज एक नेता टाइप आदमी आया और सारे मजदूरों को 300/- रुपए रोजी और लंच पैकेट के नाम पर एक हवेली में ले गया। वहां पांच मिनट की ट्रेनिंग में हमें नारा लगाना सिखाया गया। मर्दों को ये टी-शर्ट-लोवर और औरतों को साड़ी दी गई। कल सबको फिर से बुलाया गया है। अपने मित्रों और रिश्तेदारों को भी बुलाने के लिए कहा गया है। वहीं पर ये सब भारती… संस्कृति… और वो क्या पद्मावती का नाम ले-लेकर चिल्लाते हैं। हम तो बस झंडा पकड़ के हाथ उठा-उठा कर मुर्दाबाद, जिंदाबाद कहते हुए उनके पीछे पूरे शहर में घूमते रहे। दोपहर को लंच पैकेट और शाम को ये 300/- रुपए नगद। हमें क्या मतलब संस्कृति या पद्मावती से।”
“ओह ! तो ये बात है। मैं तो कुछ और ही…”
“क्या कुछ और …?”
“मैं सोच रही थी कि अपने मम्मी पापा और भाई को भी बुला लेती, तो दो पैसे वे भी कमा लेते। आप भी अपने छोटे भाई को बुला लो न कुछ दिनों के लिए। दिनभर पूरे गांव में घूमते रहता है आवारा की तरह।”
“ठीक है मैं उन्हें फोन कर देता हूं। रात को ही आ जाएं, तो कल से काम शुरू हो जाएगा। वैसे भी ये तो अभी चुनाव तक चलेगा।”
अब वह मोबाइल पर उनका नंबर खोजने लगा।
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मदद
अगले सप्ताह रागिनी की शादी है। खरीददारी के लिए वह अपनी मां के साथ अक्सर बाजार जाती थीं। प्राय: उन्हें लौटते समय शाम, तो कभी-कभी रात भी हो जाया करती थी।
एक दिन उन्होंने शाम को बाजार से लौटते समय देखा कि तेज़ी से आते हुए एक ट्रक ने दूसरी तरफ से आ रहे एक बाइक सवार लड़के को टक्कर मार दी। बाइक सवार लड़का बुरी तरह से घायल हो गया था। उसे तत्काल चिकित्सा सहायता की आवश्यकता थी। दुर्घटनास्थल पर भीड़ जमा हो गई, परन्तु कोई भी सहायता के लिए सामने नहीं आ रहा था। रागिनी आगे बढ़ी, तो मां ने हाथ पकड़ लिया। बोलीं- “ये कर रही है तू ? अगले सप्ताह तेरी शादी है। क्यों इस पचड़े में पड़ रही है ? फ़ालतू पुलिस की पूछताछ और भागदौड़। अगर तेरे ससुराल वालों को पता चल गया, तो पता नहीं वे क्या सोचेंगे ? चलो, जल्दी से निकल लो यहां से।”
“नहीं मां, मैं इस लड़के को सड़क पर यूं मरने के लिए नहीं छोड़ सकती। मैं इसे आटो से जिला अस्पताल लेकर जा रही हूं। आप चाहें, तो स्कूटी से मेरे पीछे-पीछे आ सकती हैं या फिर घर लौट सकती हैं।” रागिनी ने दृढ़ता से कहा।
“पागल हो गई है। यहां खड़े सब लोग तुम्हें पागल लग रहे हैं ?” मां उसे किसी भी तरह से रोकना चाहती थी।
“मां, इसकी जगह भैय्या या मामा जी होते, तो भी क्या आप ऐसा कहतीं ?” रागिनी की बात सुनकर मां निरुत्तर हो गईं।
रागिनी ने एक आटो से उस घायल लड़के को जिला अस्पताल पहुंचाया। रास्ते में ही उसने लड़के की मोबाइल से उसके घर वालों को दुर्घटना की सूचना देकर सीधे जिला अस्पताल पहुंचने के लिए कह दिया था। रागिनी की मम्मी भी आटो के पीछे-पीछे जिला अस्पताल पहुंच गई।
अभी वे युवक को अस्पताल के आई.सी.यू. में छोड़कर निकले ही थे, कि सामने तीन-चार लोगों के साथ रागिनी के होने वाले सास-ससुर को देख उसकी मम्मी का गला सूखने लगा, “मैंने कहा था न, अब भुगतो।” हल्की-सी आवाज में उसने कहा।
“अरे समधन जी आप लोग यहां ? सब खैरियत तो है ?” रागिनी की होने वाली सास ने कहा।
“सब ठीक है समधन जी। पर आप लोग कुछ घबराए हुए से लग रहे हैं। क्या बात है ? और ये ?” रागिनी की मम्मी ने पूछा।
“ये मेरी बहन और बहनोई जी हैं। पुणे से आज ही आए हैं। इनका बेटा मार्केट गया था। शायद उसका एक्सीडेंट हो गया है। थोड़ी देर पहले ही उसके मोबाइल से किसी लड़की ने फोन कर के हमें यहां पहुंचने के लिए कहा था।” रागिनी के होने वाले ससुर जी कहा।
“जी, वह फोन मैंने ही किया था, अभी जिस लड़के को हम यहां एडमिट करने लाए हैं।” रागिनी ने धीरे से कहा।
गले से लगा लिया रागिनी को, उसकी होने वाली सास ने। तभी सामने से डाक्टर साहब आते दिखे। रागिनी को देखकर बोले, “आपका पेशेंट अब खतरे से बाहर है। अच्छा हुआ कि आप उसे समय पर यहां ले आईं। हेलमेट पहनने की वजह से सिर में चोट नहीं लगी। उसे अभी वार्ड में शिफ्ट कर देंगे। थोड़ी देर में वह होश में भी आ जाएगा।” ऐसा कहकर डाक्टर साहब चले गए।
सब लोग कृतज्ञ भाव से रागिनी को देख रहे थे।
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शादी की तैयारी
“अरे ये क्या ? तुम्हारी आंखों में आंसू क्यों हैं ? और तुम रो क्यों रही हो ?”
”बहुत पीड़ा हो रही है ।”
”कहाँ ?”
”हृदय में।”
”क्या…? प्लीज, तुम आज मजाक मत करो। मैंने तो तुम्हें एक थप्पड़ भी नहीं मारा।”
”थप्पड़ मार देते, तो शायद इतना दर्द न होता। मेरी आत्मा इतना नहीं कराहती, जितना तुम्हारी बातों के तीर ने इसे छलनी कर दिया है।”
”अरे यार, छोड़ो भी, आज हमारी सुहागरात है। इसे यूं फ़ालतू की बातों में जाया मत करो।”
”आपको मेरी ये बातें फालतू लग रही हैं। मैं यहां अपना घर, परिवार, माँ-बाप सबको छोड़कर आई हूँ और आपने सुबह से अब तक न जाने कितनी बार ‘अँगूठी छोटी है’, ‘चैन पतली है’, ‘ए.सी. सस्ती है’, ‘बारातियों की खातिरदारी अच्छी नहीं हुई’ कहकर मेरा कलेजा छलनी करके रख दिया है। आपको शायद पता नहीं कि मेरे पिताजी ने मेरी शादी की तैयारी के लिए पैसे जुटाने तब से शुरु कर दिए थे, जब मैं पैदा हुई थी। मेरे तो क्या लगभग हर लड़की के पिता ऐसा करते हैं और लोग कितनी आसानी से कह देते हैं कि बारातियों का स्वागत ठीक से नहीं हुआ। कल को आपकी बहन की भी शादी होगी और लड़के वाले ऐसा कहेंगे, तो कैसा लगेगा आपको या आपकी बहन को ?”
”अरे यार ! तुम तो कुछ ज़्यादा ही सीरीयस हो गई। ऐसे तो हर लड़के बाले कहते हैं !” जैसे-तैसे बोल गया वह।
“हर और आप में कोई फर्क नहीं। मुझे ताज्जुब हो रहा है कि मेरी शादी उस लड़के से हुई है, जो अपने को हर ऐरे-गेरे के समान समझता है। जिसकी अपनी कोई सोच नहीं, जो दूसरों के बारे में सोच नहीं सकता।”
“सॉरी, सॉरी डियर, आज तुमने मेरी आंखें खोल दी है। मुझसे बहुत बड़ी गलती हो गई। माफ़ कर दो प्लीज़… प्लीज़… देखो मैं तुमसे कान पकड़कर माफी मांग रहा हूं… आइंदा मैं किसी भी शादी-ब्याह या अन्य कार्यक्रम में किसी भी प्रकार की कमी नहीं निकालूंगा।”
अपने पति को यूं छोटे बच्चों की तरह कान पकड़ कर माफी मांगते देख उसने उसे गले से लगा लिया।

-डॉ. प्रदीप कुमार शर्मा
रायपुर, छत्तीसगढ
09827914888
09098974888
07049590888

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