डिफ़ाल्टर
डिफाल्टर
प्रवीण कुमार
हमारे गाॅव में एक परमानन्द जी का परिवार रहता था। षाम को जब मेहनतकष मजदूर,बटोही घर पहॅुच कर विश्राम की मुद्रा में होते थे तब परमानन्द जी के यहाॅ महफिल जमा करती थी। रात्रि के सन्नाटे को चीरती हंसी ठहाके खिलखिलाने की अवाज से लोग ये अन्दाज लगा लेते थे। कि परमानन्द जी का परिवार अभी तक जगा हुआ है। इस तरह कहंे तो गाॅव की रौनक इस परिवार से ही थी। वर्ना दीन-दुखियों, षराबी -कवाबी,जुआरियो,ं सट्टेबाजो, नषेडी भगेंडी लोगो की कमी नही थी हमारे गांव में ।
हमारा गांव यमुना पार बसा हुआ था। बस थोडी ही दूर पर रेलवे स्टेषन बस अड्डा, पोस्ट आॅफिस भवन पास-पास ही थे । मेरे पिता जी तब स्टेषन सुप्रीटैन्डेन्ट हुआ करते थे लोग आदर से उन्हे वर्मा जी कहा करते थे । वैसे उनका पूरा नाम श्री प्रेम चन्द्र प्रसाद वर्मा था । कभी-कभी पिता जी परमानन्द जी की महफिल में भी षामिल हुआ करते थे । हम तब बच्चे हुआ करते थे और पिता जी एवं परमानन्द जी की रसीली सार्थक बातो को ध्यान से सुना करते थे ।
श्री परमानन्द जी चार भाई थे सबसे बडे़ परमानन्द जी स्वंय, दुसरे नम्बर पर भजनानन्द, तीसरे नम्बर पर अर्गानन्द और चैथे नम्बर पर ग्यानानन्द जी थे चारो भाइयेां में क्रमषः दो वर्षो का अन्तर था। परमानन्द जी 60 वर्ष के पूरे हो चुके थे। चारो भाई परम आध्यात्मिक एवं अग्रेजी संस्कार के परम खिलाफ थे। घर में बहुयें घूघट में रहती थी व बच्चे दबी जुवान में ही बात कर सकते थे । बडे संस्कारी बच्चे थे ये सब भ्राता आर्युवेद एवं षास्त्रो के बड़े ज्ञाता थे। अग्रेजी औषधियों का सेवन भी पाप समझते थे ।
एक दिन की बात है परमानन्द जी के सिर मे दर्द उठा फिर चक्क्र भी आया हृस्ट पुस्ट षरीर में मामूली सा चक्क्र आना उन्हे कोई फर्क नही पड़ा । वे वैसे ही मस्त रहा करते थे। अचानक एक दिन साइकिल से जाते वक्त सबजी मण्डी के पास उनकी आखों के आगे अन्धेरा छाने लगा व जोर से चक्कर आया वे गिर पडे़। लोग उन्हे उठाने दौड़ पडे लोगो ने उन्हे अस्पताल पहुचाया उनका रक्त-चाप अतयन्त बढ़ा हुआ था। डाक्टर साहब ने अग्रंेजी दवाइयां खाने को दी, जो जीवन रक्षक थी लोगो के लिहाज या डाक्टर साहब की सलाह मान कर उन्हानें दवाइयां ले ली परन्तु उन्हे इन दवाइयांे का सेवन जीवन भर करना मंजूर नही था। अतः उन्होने कुछ दिनो के पश्चात इन दवाइयों का सेवन बन्द कर, जडी़ बूटियो ं और परहेज पर विष्वास करना षुरू कर दिया।
कुछ दिन बीते कुछ पता ही नही चला । उच्च रक्त-चाप कोई लक्षण प्रर्दषित नही कर रहा था अतः उन्होने सब कुठ ठीक मानकर औषधीयों का सेवन भी बन्द कर दिया ।
अब तक दो वर्ष बीत चुके थे। परमानन्द जी प्रातः उठे तो प्रकाष के उजाले में उन्होने बल्ब की रोषनी में इन्द्र धनुषीयें रंग नजर आने लगा बायां हाथ और बायां पैर कोषिष करने के बावजूद कोई गति नही कर रहा था । कुछ -कुछ जुवान भी लडखडा रही थी मुह भी दायी और टैढा होे गया था पल्के बन्द नही हो रही थी सारे लक्षण पक्षाघात के प्रकट हो चुके थे डाक्टर को बुलाया गया, उस समय हमारी तरह 108 एम्बुलेैंस नही हूुआ करती थी कि फोन लगाओ और एम्बुलेैंस हाजिर और उपचार षुरू बल्कि डाक्टर महोदय बहुत अष्वासन एवं मोटी फीस लेकर ही घर में चिकित्सा व्यवस्था करने आते थे ।
डाक्टर का मूड़ उखडा हुआ था जब उन्हे ये मालूम हुआ कि उच्च रक्त-चाप होते हुये भी परमानन्द जी ने औषाधियों का सेवन दो वर्ष पहले ही बन्द कर दिया था ।उसके बाद न तो रक्त-चाप ही चेक कराया न ही कोई परामर्ष लिया । डाक्टर के मुह से अचानक निकला डिफाल्टर, ये तो बहुत बडा डिफाल्टर है जान बूझकर भी इसने दवाइयों का सेवन नही किया न ही सलाह ली । नतीजतन इसको अन्जाम भुगतना पडा़ अब इसका कुछ नही हो सकता इसे मेडिकल काॅलेज ले जाओ तभी इसकी जान बच सकती है। अभी पक्षाघात हुआ है अगर हृदयाघात भी हुआ तो जान भी जा सकती है।
परमानन्द जी के परिवार पर मुसीबत का पहाड़ सा टूुट पडा़ था। ंआनन फानन में वाहन की व्यवस्था कर उन्हे मेडिकल काॅलेज ले जाया गया। डाक्टरो के निरंतर प्रयासो से परमानन्द जी की जान तो बच गयी परन्तु वे जीवन भर बैसाखी के सहारे जीते रहे ।
हिन्दी अग्रजी संस्कारो के टकराव ने औषाधियों और मानव जीवन में भी भेद कर दिया था चिकित्सा विज्ञान की कोई जाति नही होती कोई धर्म नही होता है। चिकित्सा विज्ञान देष की सीमाओ से परे केवल मानवता के हित में होता है उसका उददेषय जीवन के प्रत्येक क्षणो को उपयोगी सुखमय एवं स्वस्थ्य बनाना होता है। अतः डिफााल्टर कभी मत बनिये ंहमेषा डाक्टर की सलाह को ध्यान से सुनये व पालन कीजिये तभी मानवता की दृष्टि में चिकित्सा विज्ञान का अहम येागदान हो सकता है ।
नोट-उच्च रक्त-चाप दिवस पर विषेष कहानी।