ठनक रहे माथे गर्मीले / (गर्मी का नवगीत)
ठनक रहे
माथे गर्मीले ।
भीतर तपता,
बाहर तपता ।
मिट्टी तपती,
पत्थर तपता ।
पत्ते हरे
हुए सब पीले ।
बिछिया तपती,
बिंदिया तपती ।
आँगन तपता,
कुटिया तपती ।
गरम हुए
घूँघट शर्मीले ।
आँखें तपतीं,
पाँखें तपतीं ।
जड़ें गर्म हैं,
शाखें तपतीं ।
भाप उड़ाते
स्रोत्र सजीले ।
ठनक रहे
माथे गर्मीले ।
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—- ईश्वर दयाल गोस्वामी
छिरारी (रहली),सागर
मध्यप्रदेश ।