झूठ
लघुकथा
झूठ
“अजीब किस्म के इंसान हैं आप। किस उम्र के व्यक्ति को क्या संबोधन करना है, ये कॉमन-सेंस भी आपको नहीं पता।”
“नाराज क्यों हो रही हो डॉर्लिंग। तुम्हें ऐसा क्यों लगता है ?”
“बहुत ही अजीब-सा लगता है आपको अपनी दादी और दादाजी की उम्र के लोगों को दीदी और भैया कहते हुए देखकर। सामने वाला भी चकित रह जाता है ऐसा सुनकर।”
“तो इसमें दिक्कत क्या है ?”
“अपनी उम्र का कुछ अंदाजा भी है आपको।”
“वैसे भी हम हैं तो गबरू जवान ही, पर आपके साथ रहने से हमारी जवानी कुछ ज्यादा ही उबाल मारने लगती है।”
“कैसे समझाऊँ मैं आपको। तीस की उम्र में ही दिमागी रूप से सिक्स्टी प्लस के लगते हैं।”
“मैडम जी, आप खामख्वाह नाराज हो रही हैं। देखिए, किसी भी अधिक उम्र के व्यक्ति को मेरे द्वारा भैया, बहन या दीदी कह देने मात्र से मेरा या आपका कुछ बिगड़ तो नहीं जाता, न ही कुछ नुकसान होता है। कभी आप उनके चेहरे को पढ़ने की कोशिश कीजिएगा। सुखद आश्चर्य से उनकी झुर्रियों से भरी आँखें फैल जाती हैं। शायद थोड़ी देर के लिए वे अपनी उम्र को भूल जाते हैं। मुझे देखकर वे अपने आप को 10-15 साल कम का महसूस करने लगते हैं। ये देखना मन को कितना सुकून देता है।”
“यदि कभी कोई पूछ दे कि आप हमें अंकल या आंटी न कह कर भैया या दीदी क्यों संबोधित कर रहे हैं तो आप क्या जवाब देंगे ?”
“मैडम जी, ये सवाल मुझसे कई बार पूछा जा चुका है। तब मैं बड़ी ही सफाई से कह देता हूँ कि मैं पाँच भाई-बहनों में सबसे छोटा हूँ। मेरे बड़े भैया या बड़ी बहन की उम्र आपसे यही कोई दो-तीन ज्यादा होगी। इस नाते आप मेरे भैया या दीदी ही हुए न। ऐसा सुनकर सामने वाला संतुष्ट हो जाताहै।”
“झूठ बोलना तो कोई आपसे सीखे।”
“डॉर्लिंग, मेरे एक झूठ से यदि किसी को कोई नुकसान नहीं हो रहा है बल्कि लोगों को उससे आत्मिक खुशी होती है, तो ऐसे झूठ बोलने में क्या दिक्कत है ?”
“हूँ, कोई दिक्कत नहीं है जी। अब मैं भी आपकी तरह ऐसे ही झूठ बोलने की कोशिश करूँगी।”
– डॉ. प्रदीप कुमार शर्मा
रायपुर, छत्तीसगढ़