ज्वारभाटा
सुमि बेजान-सी चहलकदमी कर रही है। नींद तो मानों उसकी आँखों से कोसों दूर थी आज……..
और आती भी कैसे……
अल सुबह निर्णय जो हो जाना था।
सुयश बीच-बीच में आँखें खोलते । उसे सोने की हिदायत दे फिर बेसुध नींद की गोद में..
“क्या यही दायित्व है एक पिता का अपनी संतान के प्रति ? “सोच रही थी सुमि।
बरबस ही उसकी दृष्टि नन्ही मीशा पर पड़ी। दीन-दुनिया के पचड़ों से बेख़बर नन्ही मासूम तो परियों के अंक में समाई आनंद लोक में सैर कर रही थी।
“मम्मा मेली एत छोती छी बहन कब आएदी” आज ही सुबह तो नन्ही मीशू अपनी नन्ही हथेलियाँ सुमि के उभरे पेट रखकर खिलखिलाई थी।
बेचारी क्या जाने…..
सुयश स्वयं एक डॉक्टर थे व पत्नी की कोख का दूसरा जीव नागवार था उन्हें ही नहीं अपितु समूचे परिवार को।
माता-पिता के साथ वे भी सुमि पर दबाव डाल रहे थे। सुमि एक घरेलू महिला थी हरेक मामले में अधिकार नगण्य थे ।
सुमि के व्यथित उर सागर में उठ रही सुख-दुख ज्वार भाटे की तीव्र तरंगों असर प्रत्येक श्वास-प्रश्वास पर था।
सुबह 8 बजे कलावती हास्पिटल.. सुयश के मित्र डॉ. हर्षल का पहला केस सुमि का ही है। उसकी सहमति-असहमति का तो कोई प्रश्न ही नहीं था। नयनों का दरिया बेअसर था।
नहीं… बिल्कुल नहीं…..
मैं स्वयं एक नारी हूँ…. और एक नारी को जीवन जीने से न रोकूंगी और न किसी को रोकने दूंगी…
मैं दिखाऊँगी तुझे संसार।
उभरी कोख को हौले से सहलाया माँ के कोमल स्पर्श ने।
स्पर्श पाते ही अंतस का जीव खुशी से नाच उठा।
समंदर शांत था…..
लहरें थम चुकी थीं……
सुमि की श्वास-प्रश्वास सही गतिमान थी और था आँखों में निंदिया का डेरा।
नव भोर की उजली किरणें श्यामल विभावरी की विदा करने को आतुर थीं।
रंजना माथुर
अजमेर (राजस्थान )
मेरी स्व रचित व मौलिक रचना
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