“ज्ञानी प्रजा,नादान राजा”
ज्ञानी प्रजा, जो हो शांति की पाठशाला,
नादान राजा, जो गुम है अपने जाल में।
राजा की आँखों में चमक न कोई,
प्रजा की आँखों में चिंगारी जो हो असीम।
प्रजा ने देखा था सपने सुंदर,
राजा ने उन्हें बिखेर दिया, बेकार के बहाने।
शक्ति का मद, और घमंड की लहर,
प्रजा को भूल बैठा, उसके सच्चे अधिकार।
ज्ञानी प्रजा जानती थी सच्चाई का रंग,
राजा के फैसलों में दिखती थी केवल झूठी उमंग।
रोटी, कपड़ा, और शिक्षा का अधिकार,
राजा था दूर, बस था उसे अपनी ऐश-ओ-आराम का ख़्याल।
ज्ञान से भरी थी प्रजा की सोच,
राजा की नासमझी ने उसे बना दिया था अंधा।
सत्य की राह में भटक रहे थे सब,
राजा की नासमझी ने किया सबका हाल खराब।
हर कदम पर वह कच्चे मोती की तरह चूके,
प्रजा ने देखे, लेकिन आवाज़ न कोई उठाए।
राजा को मिला था ताज और रथ का घमंड,
पर प्रजा की आवाज़ थी गुम, उसमें कोई दम नहीं।
ज्ञान के बल पर प्रजा ने संघर्ष किया,
राजा की नादानी को खत्म करने का इरादा किया।
कभी तो जागेगा राजा अपनी मूर्खता से,
समझेगा सच्चे नेतृत्व की रीत से।
ज्ञानी प्रजा का हौसला कभी न टूटेगा,
राजा चाहे जैसा हो, सत्य हमेशा जीतेगा।
वो प्रजा, जो सही राह पर चली,
राजा का अंत वही करेगी, जो हुआ था सही।
राजा के गलती को प्रजा दूर करेगी,
और एक दिन यही प्रजा राज करेगी।
नादान राजा की सत्ता का होगा अंत,
जब ज्ञानी प्रजा उठाएगी सत्य का बंती।