जोगी रा स र र र र र र र र…..
…. छोटी होली के दिन से ही एकदम काला, हरा और बैगनी रंग का इंतजाम होने लगता था ! और पक्का रंग के चक्कर में बैटरी की कालिख भी घोल कर रखते थे ! उस जमाने में गुलाल का प्रयोग रंगने में नहीं किया जाता था .. गुलाल का प्रयोग केवल होली की शाम होली मिलने के समय ही किया जाता था !
शाम को जब खेल के थक के घर आते थे …. तो अम्मा सबसे पहले “बकुआ” (सरसों और हल्दी की सिल बट्टे पर पीसकर ) रगड़ रगड़ के लगाती थी फिर जो मैल शरीर से निकलता था उसे पुडिया बनाकर देती और कहती की जाओ इसे होलिका में दाल आओ … हम फिर निकल जाया करते होलिका के हुडदंग में वो पुडिया डालने और … फिर वही जोगी रा स र र र र र र र र…..
बड़ी मुश्किल से रात गुजारी जाती थी … और अगले दिन सुबह सुबह ही सबसे पहले अम्मा हमें पुराने कपडे देती और कडवा तेल देती और हम उसे पुरे शरीर पर लगाते जिससे कि रंग न चढ़े … और वो होली वाली टोपी लगाकर दोस्तों की टोली के साथ निकल पड़ते जोगी रा स र र र र र र …..
क्या मस्ती थी … उन दिनों की क्या मज़ा था उन दिनों का …. अब कहा होली … अब तो बस हो…… ली…. न वो गुझिया रही .. न ही बड़े रहे … न समोसे .. न रसगुल्ले …. अब तो रंग ही नहीं रहे होली में ….
अब कहाँ जोगी रा स र र र र र र र र….. कहने वाले रहे ….