जुलाहा, अनुराग, पंथ, उमंग, उदास
जुलाहा
बुने जुलाहा बैठकर, सपनों की ताबीर।
ताना-बाना कर्म का, बना रहा तकदीर।।
अनुराग
आतंकी नर बन गया, स्वार्थ, बैर व्यवहार।
द्वेष त्याग अनुराग से , जगत सकल परिवार।।
उमंग
अरमानों के पंख धर, अंतस भरे उमंग।
आसमान में उड़ चली, थामे डोर पतंग।।
उदास
देख दिनों के फेर को, क्यों मन हुआ उदास?
काल एक सा कब रहा, छोड़ न कल की आस।।
पंथ
प्रेम पंथ दुष्कर बड़ा, समझ न मन आसान।
अंधकार अंतस मिटा, लगा भक्ति में ध्यान।।
डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’
वाराणसी (उ. प्र.)