माँ बसन्ती-पिता राम कृष्ण
मां बसन्ती,पिता राम कृष्ण,जन्म जिन्होने दिया मुझे,
मुझसे पहले,आए जो भाई बहन,उन सबको मेरा अभिन्नदन।
माँ समान रमा दीदी,सबसे पहले वो ही आई,
पिता तुल्य अग्रज बन्धु,राधा कृष्ण हैं बडे भाई।
तीसरे क्रम पर दीदी सुशीला आई ,नाम के अनुरुप स्वभाव भी पाई,
चौथे स्थान पे महात्मा भाई,जतो नाम ततो गुण पाए।
पांचवे हुए तोता कृष्ण भ्राता,अल्प आयु से था इनका नाता,
जीवन का यह गहरा घाव है,हर पल खलता इनका अभाव है ।
बहन सरोज है मुझसे छोटी,दुूबली पतली न हो सकी मोटी ।
निशा-पुष्पा दो भौजाई,करती रहीं हौसला अफजाई ।
दो जिजाजी और एक हैं बहनोई, सरल हृदयी और साफगोई ।
माँ की अग्रजा दो मौसीयाँ हमारी,मामा भी थे घर गृहस्थी. धारी!
पिता अनूज दो चाचाजी हमारे,मुरली -मुकन्द नाम थे प्यारे ।
तीन बहन-तीन चाचीयाँ,और भाई चचेरे छै,
कोलाहल के संग जीऐ,और प्यार मोहब्बत से रहे ।
ज्यों ज्यों उम्र बढती गई,हम उम्र दराज हुए
घर गृहस्थी में तब हमें, मा,पिता बान्ध गये ,
अपनी-अपनी गृहस्थी में तब सब मसगूल हुए ।
गृहस्थी को सवांरने हम आगे बढे,हर किसी का संघर्ष जूदा,
काम विभक्त हैं हम सबके , जूझ रहे थे सब अपने ढंग से!
घर गृहस्थी में हम सभी इतने ब्यस्त हुए,
एक दूजे को मिलने को हम तरस गये ।
मिलना होता यदा-कदा, जब मिलते तो मिलने को कह जाते।
पिता थे जन सेवक,प्रथम ग्राम प्रधान रहे,
उनकी ही प्रेरणा थी हममें भी,उसी राह हम चले,
मैने तो अनूसरण ही यह धारा,और प्रधान पद भी पाया,
जन सेवा से जुडा रहा,नीज धर्म निभाया ।
मुझको भार्या कुसूम मिली,दो बेटी एक बेटा देकर,हर पल साथ चली । अब बच्चों की शिक्छा को था मैं आतूर,
चूंकि गांव में शिक्छा न थी भरपूर,
चला आया मैं बच्चों को लेकर देहरादून,
मिल गया प्रवेश जब बच्चौं को तब पाया हमने सूकुन ।
बेटियोंं को ग्रेजूएट कराया,और बेटे को बी टैक,
अब थी जिम्मेवारी पारिवारिक, और संसकारिक,
करनी थी शादियां वैदिक पारम्परिक ।
ईश्वरिय सयोंग से मैने दामाद पाये,
विशाल- मयंक नाम ये आये ।
बेटियों को मातृत्व का सुख मिला,
अभिरुचि को अविरल,व अनुभूति ने आद्या का फल पाया ।
स्वाती को गृहलक्छमी बनाया,अजय का उससे ब्याह है रचाया,
अब प्रभू से प्रार्थना है हमारी,बहू-बेटे को मिले संन्तान संसकारी।
गृहस्थ जीवन यों पूर्ण हुआ,पौत्र-पौत्री का दर्शन शेष रहा ।
ईश्वर से है वन्दन वह हमसे पुण्य कराये,
यही अब जीवन का उदेश्य बन जाये।
पैंसठ को मैं कदम बढा चुका हूँ,जन सेवा का मन बना चूका हूँ।
वर्ष उन्नीस सौ चौव्वन,माह अक्टूबर.की इक्कीस तारीक थी,
पांच गते कार्तिक,की जगमगाती. रात व दिवाली की थी तिथी ।
माता के गर्भ से मां भारती की गोद में,मैं आया,
जाने कितनो जन्मो के बाद मनुस्य जीवन पाया ।
माता ने पिता व बन्धुओं के नामानूसार नाम सुझाया,
ऐसै जय कृष्ण मैने नाम है पाया ।
यहीं से शुरु हुआ यह सफर और ये सिलसिला,
समय कब बीत गया यह कुछ पता ही नही चला ।
बडे भाई जी के हैं तीन पुत्र,तीन बहूरानीयां,
एक है पौत्र,और चार पौत्रीयां ।
हरी भाईजी पे हैं एक पूत्री एक पूत्र,
बेटी पे है बेटा,पूत्री है बहू बेटे पर।
यही है संसार हमारा, हम सब हैं संगठित, संयुक्त परिवार हमारा ।