जीवन के बसंत
खींचतान कर जैसे तैसे ले आया हूं
मैं जीवन के बसंत जी आया हूं
सबसे मधुर थे बचपन के बसंत
बिना चिन्ता के ओर किए बिना जतन
पा मैं सब कुछ लेता था
हां जिद में थोड़ा रो लेता था
फिर थोड़े तीक्ष्ण बसंत की कहानी आती है
मुझ पर जवानी छाती है
प्रेम में पागलपन छाता है
प्रेयसी के खातिर वो बसंत लड जाता है
फिर आता है जिम्मेदारी का बसंत
एक अच्छा खासा ओर लम्बा बसंत
घर की जिम्मेदारी सर पर आती है
धीरे धीरे मुझ समझ आती है
11-20 ओर फिर 20 से 30 का बसंत
कहीं खो जाता है
मुझ में एक पिता एक पति का भाव आता है
30-40 का वसंत मेहनत ले जाता है
40-50 का वसंत बच्चों की शादी
की चिन्ता ले जाता है
50 के बाद कहीं मुझ को
मैं मिल पाता हूं
अपने जीवनसाथी के कांधे पर
अपना सर रख जीवन के बसंत गिना करता हूं
उसके साथ ही 50-60 की कहानी होती है
जीवन तब ओर मधुर हो जाता है
सारे वसंत एक तरह ओर जीवन कहीं खो जाता है
60-70 तक खाट पकड़ लेते हैं
धीरे धीरे हम अन्तिम की ओर होते हैं
एक दिन सारे बसंत का अन्त हो जाता है
जीवन का खेल खत्म हो जाता है
सुशील मिश्रा (क्षितिज राज)