जीवनोपयोगी (दोहें)
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अपने देश को लग चूका, घोटाले का रोग।
गबन, घोटाले बंद हो, ढूंढो ऐसा योग।।
धर्म जात के नाम पर, आज बटा है देश।
जिसकी जैसी क्षमता है, बदले वैसा भेष।।
चूहे बिल्ली खेल रहे, नोट वोट का खेल।
जीत गये तो सत्ता में, हार गये तो जेल।।
माया मन की मरी नहीं, मरने लगा शरीर।
अभिलाषा पूर्ति खातिर, बेचन लगा जमीर।।
ऊल्लू बैठा साख पर, बाच रहा तकदीर।
सबको उतना ही मिलता, जिसकी जो तदबीर।।
माँ मथुरा और काशी है , माँ तीरथ प्रयाग।
जिसने की माँ की भक्ति, वही हुआ बड़भाग।।
भाई भाई वार छिड़ा, विखर गया परिवार।
मात पिता के नजरों में, उजड़ गया संसार।।
पं.संजीव शुक्ल “सचिन”