जिस आंगन
रि
जिस आंगन में मेरा चांद उतारता था
उस ज़मीनें-मकां को भला कैसे बेचूं मैं
जहां लहू के सिवा कुछ नहीं रहता
वहां दिले-लकीरें भला कैसे खींचू मैं ।।नितु साह
रि
जिस आंगन में मेरा चांद उतारता था
उस ज़मीनें-मकां को भला कैसे बेचूं मैं
जहां लहू के सिवा कुछ नहीं रहता
वहां दिले-लकीरें भला कैसे खींचू मैं ।।नितु साह