जिन आँखों में बंजर दुनिया
जिन आँखों में बंजर दुनिया ।
उनकी खातिर पत्थर दुनिया ।।
बैठे सौ संवाद अकेले, घूर रहे सागर के जल को ।
तूफानों के शब्द हृदय में, देख रहे लहरों के छल को ।
मोती जाने कहाँ छुपा हो,
निकले जिसमें सुन्दर दुनिया….।
जिन आँखों………।।
प्रश्न अकेले पड़े वहाँ पर, जहाँ कुतर्कों का रेला था ।
उत्तर भी हो गए निरुत्तर, खेल कुमति ने यों खेला था ।
अंदर ब्याकुल बेबस दुनिया,
अपनी धुन में बाहर दुनिया……….।
जिन आँखों………….।।
भले नहीं है आज द्रोपदी, किन्तु पुनः संवेग दाँव पर ।
जलती तपती धूप अड़ी है, अपना दावा लिए छाँव पर ।
कैसे आज दिखाऊँ सबको,
कैसी मेरे अंदर दुनिया……।
जिन आँखों में…………….।।
राहुल द्विवेदी ‘स्मित’