जिन्दा सरोधा
जिन्दा सरोधा
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मै फरेबी धुन्ध की
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वह छोर खोजा हूँ ।
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जन्म से
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रहने लगा मै
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पाक रोजा हूँ ।
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झप रही
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पलकें उठाकर
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देखने से घूरकर ।
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दिन उगाने
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भोर कलशे
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चौक धर दी पूरकर
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जबं देती
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दृष्टि का
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जिन्दा सरोधा हूँ ।
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एक अन्दर
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शक्ति तेर
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खून मे भी ज्वार मेरे
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देह से
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उठती तरंगे
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फैलकर देती उजेरे
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काट तुम
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देती किरन
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पडिंत पुरोधा हूँ ।
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@सर्वाधिकार
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सुरक्षित
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विनय पान्डेय
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