ज़िद्दी छात्र
#स्कूली दिनों के अनुभव पर आधारित कहानी…
बात उस समय की है जब मैंने 10वीं पास करने के बाद 11वीं क्लास में दाखिला लेने के लिए शहर के एक नामचीन कॉलेज का चुनाव किया था। वजह थी उस कॉलेज का अनुशासन। सोचा था कि अनुशासन अच्छा है तो पढ़ाई भी बेहतर ही होगी। अनुशासन का ऐसा माहौल मैंने उस वक्त देखा था, जब मेरा 10सवीं का सेंटर उस नामचीन कॉलेज में पहुंचा था।
वहां एडमिशन में पहले अच्छी रैंक पाने वालों को मौका दिया जा रहा था। चूंकि मैं औसत दर्जे का छात्र रहा था, इसलिए काफी कोशिश और इंतजार के बाद मेरा एडमिशन हो सका। उस वक्त हम पर दो हिंदी, इंग्लिश और तीन कॉमर्स के यानी कुल 5 सब्जेक्ट थे। उस कॉलेज में अनुशासन तो बहुत था, जिसकी वजह से मैंने वहां एडमिशन लिया था। हां, वहां के शिक्षकों ने ट्यूशन की (कु)प्रथा डाल रखी थी। यह कम से कम मेरी बर्दाश्त से तो बाहर हो था। ट्यूशन के लिए शिक्षकों में खींचतान मची रहती थी। मैंने भी ठान लिया कि इस (कु)प्रथा का हर हाल में मुझे विरोध करना ही है। बहरहाल, कमजोर और औसत दर्जे के छात्रों के लिए यह कोई आसान काम नहीं था।
पांच शिक्षकों पर हमें पढ़ाने की जिम्मेदारी थी। इनमें से तीन कॉमर्स के सब्जेक्ट, एक हिंदी और एक इंग्लिश पढ़ाते थे। क्लास टीचर श्री आर.पी. वैश्य जी और हिंदी के शिक्षक श्री ब्रजभूषण सक्सेना जी की मैं आज भी तारीफ करूंगा। दोनों ही बेहद सीधे-सरल और सज्जन इंसान थे। दोनों में से किसी ने कभी ट्यूशन के लिए दबाव नहीं डाला। मुझे इंग्लिश और एकाउंटेंसी विषय कुछ मुश्किल मालूम होते थे।
सत्र शुरू होने के 15 दिन बाद ही इंग्लिश और एकाउंटेंसी की ट्यूशन के लिए अप्रत्यक्ष रूप से हम लोगों पर दबाव बनाया जाने लगा। वरना ट्यूशन नहीं पढ़ने पर फेल कर दिया जाएगा। बहुत असमंजस की स्थिति थी, क्योंकि कॉलेज के शिक्षकों की ट्यूशन फीस कुछ ज्यादा ही थी। उस वक्त हमारे पास इतने रुपए भी नहीं थे कि ट्यूशन फीस आराम से अदा कर सकें। उस कॉलेज का एक रिकॉर्ड यह भी था बोर्ड परीक्षाओं की अपेक्षा कॉलेज स्तर की परीक्षाओं में ज्यादा छात्र फेल होते थे। इसलिए यह भी डर सता रहा था, 11वीं में फेल हो गए तो साल खराब हो जाएगा और बदनामी अलग होगी।
चूंकि मैं एकाउंटेंसी और इंग्लिश में कमजोर था, इसलिए एक्स्ट्रा ट्यूशन की जरूरत थी। समय बर्बाद न करते हुए मैंने ये दोनों सब्जेक्ट बड़े भाई के दोस्त से पढ़ना शुरू कर दिए। उन्होंने बहुत अच्छे ढंग से पढ़ाना शुरू किया। इसका नतीजा क्लास में पढ़ाई के दौरान नजर आने लगा। कॉलेज के ट्यूशनखोर शिक्षक साफ तौर पर समझ चुके थे कि मैं किसी से ट्यूशन ले रहा हूं। इधर, बैंकिंग वाले शिक्षक का दबाव था कि मैं उनसे एकाउंटेंसी की ट्यूशन पढूं, वरना मेरा बैंकिंग में फेल होना तय था। समस्या यह थी कि एकाउंटेंसी वाले टीचर से उनका सब्जेक्ट न पढूं तो भी गलत होगा।
अब मैं इस विकराल समस्या से निपटने की ठान चुका था। क्लास टीचर को विश्वास में लिया और बैंकिंग की जगह टाइप सब्जेक्ट लेने की एप्लीकेशन लगा दी। प्रिंसिपल सर का एप्रूवल मिलने के बाद कुछ राहत महसूस हुई। एक तो यह कि एक सब्जेक्ट कम हुआ, दूसरे यह कि शिक्षक के नाम पर एक तरह के कलंक से छुटकारा मिला। अब 30 रुपये माहवार के खर्च पर टाइप की कोचिंग भी शुरू कर दी थी। अब वह शिक्षक मुझे हमेशा घूरकर देखा करते थे। खैर… 11वीं के दोनों एग्जाम में मैं ठीक-ठाक मार्क्स के साथ पास हो गया। खुशी और हैरत की बात यह थी कि टाइपिंग में मैंने 82% मार्क्स हासिल किए थे।
अब 12वीं में बोर्ड एग्जाम की बारी थी, इसलिए काॅलेज स्तर पर पास-फेल करने का कोई डर नहीं रह गया था। कक्षा 12 में आते ही मैंने एक बार फिर क्लास टीचर को भरोसे में ले लिया। अब टाइप की जगह बैंकिंग सब्जेक्ट लेने की अर्जी लगा दी। किस्मत ने साथ दिया, प्रिंसिपल साहब की थोड़ी सी ना नुकर के बाद सब्जेक्ट चेंज हो गया। अब मैं सीना तानकर बैंकिंग के पीरियड में बैठने लगा। अब उन शिक्षक की जुबान पर सिर्फ यही था, “मुझे पढ़ाते हुए 12 साल हो गए लेकिन मैंने ऐसा संकल्प का पक्का और ज़िद्दी छात्र अभी तक नहीं देखा।”
© अरशद रसूल