” जिंदगी “
जिंदगी तो बचपन में थी ,
जब कोई पुछता था ,
तुम कौन हो ?
तो अपने नाम से लेकर परिवार के बारे में बताने तक ही पुरा परिचय खत्म हो जाता था ।
सर पर हाथ फेर कर शाबाशी दी जाती थी ।
अब तो जवानी सिर्फ उलझनों में उलझा रही है ,
अब कोई पुछता है ,
तुम कौन हो ?
तो समझ ही नहीं आता कि ,
वो मेरे उपलब्धियों के बारे में जानना चाहते हैं
या मेरी वास्तविक हैसियत के बारे में ।
जानने के बाद अनेको वर्ग में डाल दिया जाता है ।
समझ नहीं आता कि ,
आखिर हम हैं कौन ?
दिखते कुछ और हैं ,
कहते कुछ और हैं ,
सोचते कुछ और हैं ,
समझते कुछ और हैं ,
अपनी बात हो तो अपने स्वयं के वकील बन जाते है ।
वहीं बात किसी और से जुडी हो तो न्यायधीश बन जाते हैं ।
मन स्थिर है ही नहीं और बाह्मण कहलाते हैं ,
पुजा का अर्थ पता नहीं पुजारी कहलाते हैं ,
न ब्रह्मचरित्र के बारे में पता ब्रह्मचारी बन जाते हैं ,
प्रेम का पता नहीं प्रेमी – प्रेमिका बन जाते हैं ,
धर्म का पता नहीं धार्मिक कहलाते हैं
खुद सही है कि नहीं ,
पर दूसरों की गलती सबसे पहले निकालते हैं ।
– ज्योति