जिंदगी के मरहले,
जिंदगी तेरी चौखट पर जूझ रहा हूँ,
ग़म इतने की ग़म से ही पूछ रहा हूँ,
इतना नहीं मयस्सर इफ़रात कर सकूं,
टूटा हूँ और टूट के महफ़ूज रहा हूँ।
गलियों में तेरे आके आबाद रहा हूँ,
जब भी अकेले में रहा बर्बाद रहा हूँ,
इबादत मिले या तो बेखबर हो जाऊं,
फल जो भी मिले मैं तो बुनियाद रहा हूँ।