जा रहा है
दिन का चेहरा लाल हुए जा रहा है
सूर्य क्या कमाल हुए जा रहा है
पशु पक्षी तरू लता नर हैं विकल
सकल जन बेहाल हुए जा रहा है
तप रही बुखार से हर पल धरा ज्यों
टेम्परेचर सवाल हुए जा रहा है
स्वेद परिभाषा गरीबी की लगे
चैन भी कंगाल हुए जा रहा है
‘महज़’ प्रकृति ही करेगी कुछ यहाँ
सबका बुरा हाल हुए जा रहा है
डॉ० महेन्द्र नारायण ‘महज़’